चिकित्सा, राजनीति और ये कारगुजारियां | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। समय आ गया सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों को मिलकर यह सोचने का की हाई प्रोफाइल जालसाजों से कैसे निबटें? चिकित्सा, दंत चिकित्सा, नर्सिंग, इंजीनियरिंग और अन्य व्यवसायिक दक्षता प्राप्त लोग जब ऐसे मामलों में पकड़े जाते हैं तो वे अपने सूत्र कभी सत्ता से तो कभी प्रतिपक्ष से ऐसे साबित करते हैं, जैसे सरकार वे ही चलाते हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नाम पर फर्जी तरीके से मध्यप्रदेश के राज्यपाल को फोन लगाकर नियुक्ति की सिफारिश करने का मामला भी कुछ ऐसा ही है। इसमें शामिल लोग पहले भाजपा के एक राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री के नाम मध्यप्रदेश दंत चिकित्सा परिषद के चुनाव में इस्तेमाल कर चुके हैं।

ऐसे मामले उजागर होने के बाद बड़े लोग अपना पल्ला झाड लेते हैं, मध्यप्रदेश के राज्यपाल साधुवाद के पात्र है जिन्होंने इस कारगुजारी की जाँच के खुद आदेश दिए। देश की चिकित्सा परिषद, दंत चिकित्सा परिषद जैसे संस्थानों की खबरें हमेशा चर्चा का विषय रहती है। शीर्ष से महाविद्यालय में प्रवेश तक और जब से इस क्षेत्र में निजी संस्थानों का दखल हुआ है,फ़ीस आसमान के पार पहुँच गई है। करोड़ों की फ़ीस और करोड़ों की वापसी सारे अवैधानिक कार्य कराती हैं | कमीशनखोरी, ज्यादा फीस वसूली, दक्षता पर भारी पडती है। ऐसे में कुछ चिकित्सक अपने व्यवसाय से इतर अन्य व्यवसाय में अपनी भूमिका दलाल, बेनामी लेन-देन में भी निभाने लगते हैं और इस सब का अंत समाज में, इस पवित्र सेवा व्यवसाय पर पड़ता है। 

अब इसी मामले राज्य पुलिस के विशेष कार्य बल (एसटीएफ) ने एयरफोर्स में पदस्थ विंग कमांडर कुलदीप बाघेला और पेशे से दंत चिकित्सक डॉ चंद्रेश शुक्ला को गिरफ्तार करने के बाद कल रिमांड पर लिया है। आरोप है कि मध्यप्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय में डॉ चंद्रेश कुलपति बनना चाहते थे और उन्होंने अपने दिल्ली में पदस्थ मित्र विंग कमांडर कुलदीप बाघेला की मदद से राज्यपाल को इसी सप्ताह केंद्रीय गृह मंत्री बनकर फोन किया और डॉ चंद्रेश की मदद की बात कही। राज्यपाल ने शक होने पर केंद्रीय गृह मंत्रालय बात की और धोखाधड़ी का पता चला। इसके बाद राज्यपाल के परिसहाय की शिकायत पर एसटीएफ ने जांच शुरू कर आरोपियों को दबोच लिया।अब दोनों एसटीएफ की रिमांड पर हैं।

दंत चिकित्सा परिषद और भारतीय चिकित्सा परिषद की कारगुजारियों को लेकर इनके विघटन की सिफारिश भी काफी लम्बे समय से चली आरही हैं। यू पी ए सरकार ने इन संस्थानों के विघटन से इनकार करते हुए प्रस्तावित मानव संसाधन आयोग (एनसीएचआरसी) के तहत लाने की बात कही थी। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने भी लोकसभा में कहा था कि एमसीआई, नर्सिंग काउंसिल ऑफ इंडिया और डेंटल काउंसिल ऑफ इंडिया जैसे स्वायत्त संस्थानों को एनसीएचआरएच की छत्रछाया में रखा जाएगा। 2012 से अभी तक आश्वासन ज्यो का त्यों है, कारण अधिकांश निजी चिकित्सा महाविद्यालय बड़े राजनेताओं की भागीदारी में हैं या उनके संरक्षण में है। इन विषयों के महाविद्यालय खोलने से लेकर प्रवेश और उपाधि तक काले धन का खेल चलता है। जिसे बाद में अनैतिकता से वसूलने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती।

मध्यप्रदेश का यह मामला साधारण नहीं है। कुछ दिन पहले मध्यप्रदेश दंत चिकित्सा काउन्सिल के चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय सहस्त्रबुद्धे, कांग्रेस नेता आलोक चंसोरिया, सुरेश पचौरी, दिग्विजय सिंह आदि के नाम के उपयोग के बाद मत पत्र के साथ दिए जाने वाले शपथ पत्र की हेरा फेरी के समाचार छपे थे। मुकदमे भी चल रहे हैं। क्या यह सब किसी सभ्य समाज में होना चाहिए ? समाज के हर क्षेत्र में राजनीति की भागीदारी शुचिता के लिए होना चाहिए, गंदगी को प्रश्रय देने के लिए नहीं। नाम आने न आने की बात की कोई पुष्टि अपुष्टि नहीं हुई है , पर जो नाम धुएं में तैर रहे हैं उन्हें समझना चाहिए की कहीं आग होगी तभी तो धुआं दिख रहा है। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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