मुल्क आपका भी है, तो आग लगाते क्यों हो ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। जी हाँ, मेरा यह सवाल बहुत से लोगों से हैं ? सबसे पहले, भारत सरकार से जिसे हफ्ते भर से जलते हुए देश को अब स्पष्टीकरण देने का होश आ रहा है। दूसरा- उनसे जिन्हें सरकार चलाने का वर्तमान सरकार से ज्यादा अनुभव है। तीसरा उनसे जो बिना पढ़े-लिखे इस आन्दोलन में कूद गये और ये भूल गये कि इस भीड़ में वे हाथ भी हो सकते हैं, जिनका मकसद मुल्क में आग लगाना है।

सबसे पहले सरकार का स्पष्टीकरण- एक शीर्ष सरकारी अधिकारी ने कल बमुश्किल स्पष्ट किया कि भारत में जिनका जन्म 1987 के पहले हुआ या जिनके मात-पिता की पैदाइश 1987 के पहले की है, वो कानून के मुताबिक भारतीय नागरिक हैं उन्हें नागरिकता कानून 2019 के कारण या देशव्यापी एनआरसी होने की स्थिति में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। नागरिकता कानून के 2004 के संशोधनों के मुताबिक असम में रहने वालों को छोड़कर देश के अन्य हिस्से में रहने वाले ऐसे लोग जिनके माता या पिता भारतीय नागरिक हैं, लेकिन अवैध प्रवासी नहीं हैं, उन्हें भी भारतीय नागरिक ही माना जाएगा।

बड़ी मुश्किल से नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन और इस कानून के बारे में सोशल मीडिया पर कई संस्करण प्रसारित किए जाने के बाद यह स्पष्टीकरण आया है। अब बात साफ हुई की जिनका जन्म 1987 के पहले भारत में हुआ हो या जिनके माता-पिता का जन्म इस साल [1987] के पहले हुआ है, उन्हें कानून के तहत भारतीय माना जाएगा। असम के मामले में भारतीय नागरिक होने की पहचान के लिए 1971 को आधार वर्ष बनाया गया है। सवाल यह है कि यह कवायद कानून पारित होने के पहले या उसके बाद क्यों नहीं की गई। सरकार आपकी जवाबदारी ज्यादा है।

अब बात उनकी जिन्हें सरकार चलाने का भारी भरकम अनुभव हैं, लोकसभा और राज्यसभा में उनके समझदार नुमाईंदे भी है। डेढ़ पन्ने के कानून की सही व्याख्या कर देते तो यह गुनाह नहीं होता और ये हिंसा नहीं होती।राजनीति करने का अवसर होता है। यह जो हुआ घर फूंक तमाशा ही साबित हुआ | जो सम्पत्ति जली वो देश के प्रधानमन्त्री या गृह मंत्री की नहीं थी, हम सब की थी। यह कहना कि विरोध के लिए कुछ भी कीजिये ने, झारखंड में कुछ प्रतिशत वोट जरुर दिलवा दिए होंगे। लेकिन, इसने आपको आपके आराध्य गाँधी के मूल तत्व “सत्य” से काफी दूर धकेल दिया है।

तीसरे देश के छात्र समुदाय और वे लोग जो बिना पढ़े इस आन्दोलन में कूद गये और एक ऐसा माहौल बन गया कि आक्सफोर्ड, हार्वर्ड, कोलबिया, येल, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, स्टैनफोर्ड, जॉन्स हॉपकिन्स, कॉर्नेल, एमआईटी समेत कई विश्वविद्यालयो और शैक्षणिक सस्थानो ने किसी अनजानी आशंका के चलते समर्थन दे दिया। सारा मसला भारत में आने वालों की नागरिकता का था। पूरी तरह भारत का अंदरूनी मसला। क्या भारत के जे एन यू, आई आई टी या आई एम एम अमेरिका रूस सीरिया तो छोड़ पडौसी देश के मसलों पर ऐसी राय देते सुने गये हैं, शायद नहीं। बाकी लोगों की बात उनके जमीर पर। 

छात्रों को यह जानना जरूरी है की वे उन लोगों के इशारों पर चल पड़े जिनमे से कईयो के बच्चे पहले इटरनेशनल स्कूलो और फिर विदेशी विश्वविद्यालयो मे पढ़ाई करते है या पढ़ चुके है। इसलिए भारत मे छात्रो के साथ गलत-सही जो भी हो रहा हो, इनकी बला से। इन्हे जनता से और विशेष कर छात्रों से केवल इतना ही सरोकार है कि चुनाव में वे वोट बैंक की तरह इस्तेमाल हो।छात्र और अन्य लोगों से इन नेताओं का इतना ही मोह है। इन्हें अपने बच्चे का एक दिन भी व्यर्थ जाना पसंद नहीं। आपका कैरियर कुछ भी इससे उनका कोई सरोकार नहीं।

अब बात नये फैशन की जिसमे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को न मानना, संविधान को न मानना, भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को मनमाने तरीके से मानना, और यह भावना रखना कि सब सब चलता है, की तरह लेना कहाँ तक उचित है । इस उपद्रव से उस हिंदुस्तान की नींव भी हिल गई है, जिसे आप अपना मुल्क कहते हैं |

सही मानिए ,नफरत के आधार पर पनपा आंदोलन तभी तक चल सकता है जब तक भय और संघर्ष का माहौल बना हो। आइये, इसे सब मिलकर दूर करें। याद रखिये, मनुष्य के सभ्य होने की यात्रा कई चरणों से होकर गुजरती है। इस यात्रा का हर पड़ाव उसे हिंसा से दूर ले जाता है। कम से कम कोई समाज हिंसा की सैद्धांतिकी को सम्मानित कर अपने सभ्य होने का दावा नहीं कर सकता, वे समाज भी नहीं, जिन्होंने मानव-जाति के इतिहास में विनाश के अभूतपूर्व और भयंकरतम हथियारों का जखीरा अपने पास इकट्ठा कर रखा है। पिछले एक पखवाड़े में देश में जो कुछ घटा है , मन में शंका उत्पन्न कर करता है कि क्या हम एक सभ्य समाज बन सके हैं या उस दिशा में बढ़ भी रहे हैं?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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