स्वाहा होते जनतांत्रिक मूल्य, विकल्प व्यवस्था परिवर्तन | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। देश के पिछले पांच सालों के अगले -पिछले सन्दर्भों को याद करें तो लगता है हम एक ऐसे दौर में हैं, जिसमें मानवीय मूल्य बिखर चुके हैं। यह समझना मुश्किल है अपने को सुरक्षित रखने के लिए पतन की कितनी भी सीमा तक परहेज नहीं है। विकास के महायुद्ध में भ्रष्टाचार और राष्ट्रभक्ति के नाम पर हम अपने में मगन हैं और दूसरों को कुछ भी कहने में अपना बडप्पन महसूस कर रहे हैं। देश आर्थिक विपत्तियों में निरंतर फंसता जा रहा है। कानून कायदे और समूचे संस्थानों जो हो रहा है उससे जनतांत्रिक मूल्य स्वाहा हो रहे हैं।

पतन की कोई अंतिम सीमा नहीं होती। लाज-शर्म और हया-सभी इसी रूप में देखे जा रहे हैं कि ये शायद विपक्षियों की बातें हैं। हम अपने गरेबान में झांकने की कोशिश भी नहीं करते? भोपाल उदहारण है, सड़कें एक तो जल्दी बनती नहीं, बन गई तो टिकती नहीं, आप उनमें कितने दिन चल पाएंगे? विकास की लगभग यही राम कहानी है। कहते हैं कि विकास और हकीकत में फर्क होता है। विकास और हकीकत का रिश्ता जिंन्दगी के तमाम स्वरूपों में होता है। किसी की कोई गारंटी नहीं। पुल बनते हैं और कभी-कभार पहली बरसात में ही चुपचाप बैठ जाते हैं। स्कूल-कॉलेज या अन्य शिक्षण संस्थान प्राय: पढ़ाई-लिखाई से निरंतर खारिज होते रहते हैं। वहां हत्याएं, जूतम पैजार और तरह-तरह के करिश्मे होते ही रहते हैं। हर तरह का भष्ट्राचार वहां कबड्डी खेलता रहता है। आप आंखें बंद कर आँखे बंद कर लेते हैं।

अब आलोचना करना गुनाह होता जा रहा है। हर ऑफिस धीरे-धीरे कब्रगाह बनता जा रहा है या बनने की प्रक्रिया में है। आप अनेक महीने चक्कर काट प्रतियोगिता अपनाइए, लेकिन काम होने की कोई गारंटी नहीं होती। चढ़ोत्री करने पर भी सहज ही किसी कार्य होने का कोई ठिकाना नहीं कि वह काम अन्ततोगत्वा हो ही जाएगा। डर नामक शब्द धीरे-धीरे हमारे जीवन, देश दुनिया से विदा हो रहा है। कोशिश हो रही है कि अब अच्छा और सच्चा आदमी किसी भी तरह जीने न पाए।

देश में चारों ओर निर्लज्जता, झूठ, पाखण्ड चरम पर है। न कहने से कुछ और न करने से कुछ। अब तो स्थिति यह है कि जितना फूंक सको-फूंको। चरित्र खत्म, पढ़ाई खत्म। पूरे देश में एक विशेष प्रकार का उत्पात मचा है। उत्पात का अनुपात धीरे-धीरे नहीं अखंड रूप में विकसित हो रहा है। हड़कंप, हड़बोंग और विध्वंस का अचरज भरा संसार चहुँओर दृश्यमान है। भांति-भांति का हंगामा शुरू हुआ है। अपराधियों को बकायदा संरक्षण नहीं ही दिया जा रहा बल्कि उनके पक्ष में हवा बांधी जा रही है। बैंक का अपार धन लूटकर लोग विदेश में भाग गए। हद तो बलात्कार का अपराध भी भी हिन्दू-मुस्लिम खाते में बंट गया है।

कानून प्रक्रिया आलोचना के विराट दायरे में आई है। मीडिया लगभग बिक चुका है। सत्ता ने उसे खरीद लिया है। उसमें कम लोग ही बचे हैं जो जनता के पक्ष में खड़े होने का साहस रखते हैं, यह साहस दुस्साहस कहा जा रहा है । शासन [सत्ताएं ]जनता को 'भ्रष्ट' करने पर आमादा हैं।

कहने-सुनने की सभी सीमाएं और सम्भावनाएं सील कर दी गई हैं। पूरे देश में अराजकता का बोलबाला है। यह हमारे समय की 'कमेंट्री' नहीं वरन जीवन्त हकीकत है। इसे सत्य माने तो सत्य गप्प माने तो गप्प। यह तो मन माने की बात है। जैसे सूरदास ने कहा था उधो मन माने की बात। सत्ता के मन में मनमाने की बातों का जलवा है। यह बेहद दु:खद और तर्कातीत समय है। यह सतत् निगरानी का वक्त है। कभी भी कुछ भी हो सकता है। इसलिए मेरे मित्र चन्द्रकांत देवताले कहते थे- यह खुद की निगरानी का वक्त है स्वयं बचिये अब आप को कोई बचाने वाला नहीं है। ये बातें मैंने खोट निकालने के लिए नहीं की। कोई भी पार्टी हो कोई भी बहाना अपनाये। कोई भी पार्टी देश से बड़ी नहीं हो सकती। दल आते हैं जाते हैं, लेकिन देश को दलदल न बनाएं। पता नहीं क्यों लोग हर बात में बहुत छोटी चीजें देखने के आदी होते जा रहे हैं।

देशहित एक बड़ा संवेदनशील मुद्दा है क्या इसी को हम राष्ट्रीय विकास कहेंगे। यदि विकास की यही परिभाषा है, तो अराजकता का पहला कदम कौन सा है ? यह विकास जनतंत्र को तहस-नहस कर रहा है। सत्ता परिवर्तन का प्रतिसाद यह सरकार है, व्यवस्था परिवर्तन आज की जरूरत है। देश के नागरिक सत्ता बदलते थे, बदलते हैं , लेकिन देश की मांग व्यवस्था परिवर्तन है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
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