ये कैसी नजीर बन रही है ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। देश के आर्थिक जगत की बड़ी खबर है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने संकट में घिरी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी दीवान हाउसिंग फाइनैंस कॉर्पोरेशन (DHFL) का बोर्ड भंग करने के साथ ही एक सेवानिवृत्त बैंकर को कंपनी का प्रशासक नियुक्त किया है। यह कदम डीएचएफएल को कर्ज समाधान एवं दिवालिया संहिता (IBC) के तहत भेजने की दिशा में उठाया गया है। राष्ट्रीय कंपनी कानून पंचाट (NCLT) को इस मामले में समाधान पेशेवर के तौर पर एक प्रशासक नियुक्त करना होगा। जिसकी तलाशा जोरों पर है। 

यह कदम अर्थात डीएचएफएल, एक प्रायोगिक मामला होगा क्योंकि यह व्यवस्थागत रूप से अहम वित्तीय पनी को नए नियमों के तहत दिवालिया प्रक्रिया में भेजने का पहला मामला है। ये नियम 500 करोड़ रुपये से अधिक परिसंपत्ति वाली एनबीएफसी के लिए हाल ही में बनाए गए हैं। मामले में पेश नजीरें NBFC क्षेत्र में व्यापक तौर पर लागू होंगी। यह क्षेत्र IL&FS के ध्वस्त होने के बाद से ही भारी दबाव में है। उसकी तुलना में कम जटिल होने के बावजूद डीएचएफएल पर करीब 90000 करोड़ रुपये की देनदारी है और इसका आवासीय एवं रियल एस्टेट पर व्यापक प्रभाव होगा। कंपनी को करीब 40000 करोड़ रुपये का भुगतान बैंकों को करना है इसके अतिरिक्त 10 प्रतिशत से भी कम हिस्सा सार्वजनिक जमाकर्ताओं का है। 

यूं तो डीएचएफएल जून से ही मुश्किलों में घिरी हुई है लेकिन उसे इस हालत में आने में समय लगा है। पहली वजह यह है कि एक वित्तीय संस्थान होने से इसके कारोबार समेटने को लेकर कोई अलग कानून नहीं है। मौजूदा आईबीसी नियमों ने इस बारे में कुछ प्रावधान किए हैं लेकिन उनकी मजबूती परखनी होगी। दूसरी समस्या यह है कि एक वित्तीय कंपनी होने से इसके लेनदारों की संख्या बहुत है। न केवल बैंक बल्कि म्युचुअल फंड, बॉन्डधारक और खुदरा सावधि जमाकर्ता भी इसके लेनदार हैं। लेकिन इन ऋणदाताओं के अलग-अलग हित होने से तमाम लेनदारों के बीच समझौता हो पाना आसान नहीं होगा।

एक बड़ा सवाल यह है कि क्या कर्ज समाधान प्रक्रिया इन प्राथमिकताओं के बीच संतुलन साध पाएगी? आखिरी समस्या यह थी कि डीएचएफएल के खिलाफ धोखाधड़ी के एक मामले में जांच भी चल रही है। इस जांच की प्रगति ही यह तय करेगी कि लेनदार डीएचएफएल से अपने कर्ज की वसूली कैसे करना चाहेंगे? कंपनी खातों की ऑडिट रिपोर्ट में ऐसा अंदेशा जताया गया था कि फंड को डीएचएफएल के प्रवर्तकों से जुड़े खातों में भेज दिया गया। उस समय लेनदार यही जानना चाह रहे थे कि क्या प्रवर्तकों के खातों में भेजी गई रकम वसूली जा सकती है। आखिर में, इस संकटग्रस्त वित्तीय कंपनी को नए सिरे से खड़ा करने के लिए कई योजनाएं पेश की गई हैं। इनमें से अधिकांश पर सहमति बन पाने या सफल हो पाने की संभावना कम ही है।

आईबीसी को इनका हल निकालना होगा। यह भी देखना होगा कि डीएचएफएल जैसी वित्तीय कंपनी के कर्ज निपटान के लिए आईबीसी प्रक्रिया अपनाकर नजीर भी पेश की जा रही है। एनबीएफसी की व्यवस्थागत अहमियत और डीएचएफएल से जुड़ी कई परियोजनाओं के अपने दम पर भी व्यवहार्य होने की बात भी ध्यान में रखनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा है कि आईबीसी को लेनदारों की अहमियत का भी सम्मान करना होगा यानी सुरक्षित ऋणदाता को असुरक्षित लेनदार की तुलना में अहमियत देनी होगी। 

भले ही आरबीआई जमाकर्ताओं की राशि का भुगतान पहले होते हुए देखना चाहेगा लेकिन सच यही है कि आईबीसी प्रक्रिया में सुरक्षित ऋणदाता को प्राथमिकता देनी होगी। अगर डीएचएफएल का यह प्रायोगिक मामला समस्याओं में घिर जाता है तो सरकार को जल्दबाजी दिखाते हुए दिवालिया वित्तीय संस्थानों से संबंधित अपने विधेयक का संशोधित संस्करण लाना होगा। इस विधेयक को पिछले साल सरकार ने वापस ले लिया था जब जमा सुरक्षा को लेकर चिंता जताई जाने लगीं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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