दाल और खाने के तेल पर ध्यान दें | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। दाल और खाने का तेल गरीब आदमी की भारत में रोज की जरूरत है | विदेश से आ रही दाल जहरीली है, और भारत खाने के तेल के मामले में देश आत्मनिर्भर नही है | विदेश से आयतित ये सामग्री जीना मुहाल करती हैं | गुणवत्ता पूर्ण उत्पादन के देसी तरीकों की ओर लौटना होगा, वरना विदेशी उत्पादन देश को बीमार कर देगा और लाल गेहूं के साथ आई गाजर घास अभी तक अभिशाप बनी हुई है | देश को विदेश से कुछ भी आयात करने के पहले दीर्घकालिक परिणामों पर विचार तो करना ही चाहिए, साथ ही खाद्यान्न दलहन और तिलहन उत्पादन के परम्परागत तरीकों को स्वदेशी मेधा के उपयोग से आत्मनिर्भरता में बदलने के पुरजोर प्रयास जरूरी है | ये चेतावनी देश के लिए चिंतनीय है | 

भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने हाल ही में आदेश जारी करते हुए कहा कि कनाडा और आस्ट्रेलिया से आने वाली मूंग और मसूर की दाल में विषैले कीटनाशक तत्व शामिल हो सकतेहै।एफएसएसएआई के मुताबिक इन दालों में ग्लाइफोसेट नामक विषैले कीटनाशक (Toxic insecticide called glyphosate) की भारी मौजूदगी पाई गई है, लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। एफएसएसएआई ने आयातित मटर और सोयाबीन में भी ग्लाइफोसेट होने की संभावना जताई है। कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में वहां के किसान ग्लाइफोसेट युक्त कीटनाशक का इस्तेमाल करते हैं। यह और आश्चर्यजनक तथ्य है कि भारत के पास ग्लाइफोसेट की मात्रा को कंट्रोल करने का कोई मानक पैमाना नहीं है। 

प्राधिकरण ने अपने आदेश में प्राधिकृत अफसरों को कहा है कि प्रयोगशालाओं में सैंपल भेजने के साथ वे यह भी सुनिश्चित करें कि दूसरे टेस्ट के साथ ग्लाइफोसेट की भी जांच करें। साथ ही अधिकारियों से प्रत्येक 15 दिन में दालों में ग्लाइफोसेट से संबंधित डाटा भेजने का निर्देश दिया है।एफएसएसएआई के सूत्रों के मुताबिक उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि कोडेक्स स्टैंडर्ड के मुताबिक अधिकतम अवशेष सीमा का पालन करें। प्राधिकरण ने देश की कई प्रयोगशालाओं को भी निर्देश दिया है कि इन दालों में ग्लाइफोसेट की मात्रा की जांच की जाए। गौतरतब है कि शरीर में ज्यादा मात्रा में ग्लाइफोसेट के प्रवेश से प्रोटीन से जुड़ी बीमारियां हो सकती है। माना जाता है कि ग्लाइफोसेट जैसे विषैले कीटनाशकों के चलते ही श्रीलंका में कई गन्ना किसानों की मौत गुर्दे के फेल होने की वज़ह से हो गई थी।

कृषि मंत्रालय से आग्रह किया है कि वह खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए एक योजना तैयार करे। यह अनुरोध आर्थिक दृष्टि से तार्किक प्रतीत होता है और इस पर तत्काल कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। खाद्य तेल की जरूरत पूरी करने के लिए आयात पर हमारी निर्भरता बढ़कर 65 से 70 फीसदी तक हो गई है। कच्चे तेल और सोने के बाद खाद्य तेल देश का सर्वाधिक आयात किया जाने वाला उत्पाद है। मूल्य निर्धारण नीतियों और टैरिफ ने तिलहन उत्पादन को आर्थिक रूप से अव्यवहार्य बना दिया। इसने घरेलू तिलहन प्रसंस्करण उद्योग को भी नुकसान पहुंचाया। स्थानीय स्तर पर तिलहन पेराई क्षमता का बड़ा हिस्सा या तो बेकार है या फिर उसका क्षमता से कम इस्तेमाल हो रहा है। खली निर्यात पर भी नकारात्मक असर हुआ है।

इस वर्ष के आरंभ में अपने बजट भाषण में केंद्र सरकार ने तिलहन के क्षेत्र में आत्म निर्भरता प्राप्त करने की बात कही थी। उन्होंने दलहन का उदाहरण दिया था जहां हम यह उपलब्धि हासिल कर चुके हैं।यहाँ यह सवाल पैदा होता है तो फिर आयात क्यों? वैसे भी तिलहन और दलहन दो अलग-अलग चीजें हैं। इनकी चुनौतियां अलग हैं और इनका निरापद उत्पादन बढ़ाने के लिए अलग रुख अपनाने की आवश्यकता है। यह सही है कि दोनों नीतिगत खामियों और गलत बाजार हस्तक्षेप के शिकार हैं। इन्हें लेकर प्रतिक्रियाएं भी अलग-अलग रही हैं। यह बात तिलहन पर लागू नहीं होती क्योंकि उसकी उपलब्धता प्रचुर है। 

यही कारण है कि किसान तिलहन उत्पादन बढ़ाने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखते। शोध क्षेत्र और आम किसान के खेत में होने वाले उत्पादन में भारी अंतर इसका स्पष्ट प्रमाण है। बहरहाल, तिलहन उत्पादक इस तकनीक में निवेश करना नहीं चाहते क्योंकि मौजूदा उपभोक्तान्मुखी और उत्पादक विरोधी नीति में उन्हें पर्याप्त प्रतिफल को लेकर अनिश्चितता नजर आती है। खाद्य तेल में आत्म निर्भरता हासिल करने के लिए उपज का आकर्षक मूल्य आवश्यक है। सन 1980 के आखिर और सन 1990 के शुरुआती वर्षों में उच्च कीमतों की बदौलत भारत दुनिया के सबसे बड़े खाद्य तेल आयातक से शुद्घ निर्यातक तक का सफर तय करने में कामयाब रहा था। हम उस स्थान को फिर से अर्जित कर सकते हैं| आवश्यकता सरकार और समाज के प्रोत्साहन की है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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