ये निजीकरण का दौर है| रेल रेलवे स्टेशन और रेलगाडिय़ां, हवाई अड्डे, कंटेनर कॉर्पोरेशन, शिपिंग कॉर्पोरेशन, राजमार्ग परियोजनाएं, एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम इन सभी का तथा अन्य संस्थानों का भी निजीकरण होना है।इसके बाद शायद बैंको की पारी आये | विनिवेश से शरू हुई सरकार निजीकरण पर आ गई है | पूर्ण निजीकरण हो रहा है जिस पर सारा देश चर्चा कर रहा है | पूर्ण निजीकरण का अर्थ है, स्वामित्व में बदलाव। लगता है भाजपा ने उस उक्ति पर अमल करना शुरू कर दिया है कि “व्यापार करना सरकार का काम नहीं है |” पर देश की पूंजी कम करना सरकार का काम कैसे हो सकता है ? पिछली बार भी ऐसा वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में अरुण शौरी ने किया था। निजी हाथों में देश के संस्थान का पूर्ण स्वामित्व सौंप देना उस संस्थान में वेष्ठित पूंजी का कम होना ही तो है | भारी पूंजी से संस्थान खड़ा करना, उसे मनमाने तरीके से चला कर उसके कुशल प्रबंधकों को हटाना और उसे औने-पौने दाम पर चहेतों को देना | कोई नीति नहीं कही जा सकती |
सरकार को समझना चाहिए कि इस सब का राजनीतिक जोखिम भी है। संघ प्रमुख ने भी इस नीति के कुछ पहलुओं को लेकर चेतावनी दी है। श्रम संगठनों द्वारा भी असंतोष दर्ज किया जा रहा है। यह अलग बात है कि मोदी सरकार ऐसे प्रतिरोधों पर ध्यान नहीं दे रही है | उसे अपनी प्रतिष्ठा को उत्पन्न जोखिम को भी ध्यान में रखना होगा। भारत भी उन कई देशों में शामिल है जहाँ निजीकरण के साथ विवाद जुड़े रहते हैं। जब लंबे समय की लीज जैसे जटिल वित्तीय मसलों पर जल्दबाजी में बिना मशविरे के निर्णय लिया जाए तो विवाद उत्पन्न होते ही हैं।जैसे हाल ही में हवाई अड्डों को अदाणी समूह को देना इसका उदाहरण है।
इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए सकारात्मक कदम उठाने की सरकार की प्रतिष्ठा बहाल करना। दरअसल २०१६ की नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर के कमजोर क्रियान्वयन से ऐसी धारणा बन गई थी कि मंदी के लिए ये कदम भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। एक अन्य लक्ष्य बढ़ते राजकोषीय घाटे को कम करना भी हो सकता है। सरकार एक के बाद एक नए व्यय कार्यक्रमों की घोषणा कर रही है और कर रियायतें प्रदान की जा रही हैं। एक ओर जहां व्यय बढ़ा है, वहीं कर राजस्व में कमी आई है। इससे पहले कि राजकोषीय अंतर शर्मिंदा करने वाले स्तर पर पहुंचे, कहीं न कहीं से तो धन जुटाना होगा। भारतीय रिजर्व बैंक को एकबारगी हस्तांतरण करने पर मजबूर किया जा चुका है,लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। ऐसे में निजीकरण के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है | परेशानी यह है कि अभी आधे से अधिक वित्त वर्ष बाकी है और जिन सरकारी परिसंपत्तियों की बिक्री की घोषणा की भी गई है, वह मार्च के अंत तक पूरी होती नहीं दिखती।
राजकोषीय शुद्घतावादी कहेंगे कि मौजूदा व्यय की पूर्ति के लिए परिसंपत्तियों की बिक्री करना उचित नहीं है। वैसे ही जैसे किसानों या स्वास्थ्य बीमा योजना पर व्यय की प्रक्रिया निरंतर नहीं चल सकती। कभी न कभी तो बिक्री के लिए उपलब्ध परिसंपत्ति समाप्त हो जाएगी। हालांकि वह अभी दूर की संभावना है और सकारात्मक रूप से देखें तो निजी कारोबारियों द्वारा संपत्ति के व्यवस्थित इस्तेमाल के अपने लाभ हैं। निजीकरण के पीछे वास्तविक दलील भी यही है।
क्या निजीकरण कारगर साबित होगा? यह कारगर हो सकता है बशर्ते कि सरकार बिक्री या लीज की शर्तें समझदारीपूर्वक तय करे। वरना एयर इंडिया जैसी स्थिति बन सकती है। जहां तक खरीदारों की बात है तो यह सच है कि अधिकांश देसी कारोबारी घराने अभी नकदी खर्च करने के मिजाज में नहीं हैं। वे कर्ज कम करने पर केंद्रित हैं। इसके अलावा कई स्थापित कारोबारियों की निवेश करने की क्षमता दिवालिया प्रक्रिया के कारण बुरी तरह प्रभावित हुई है। ऋण के बदले जारी किए गए शेयर एकदम मिट्टी के मोल बिक रहे हैं। अनिल अंबानी, रुइया बंधु, सुभाष चंद्रा और अन्य कारोबारी यह झेल चुके हैं जबकि गौतम थापर और रैनबैक्सी से जुड़े रहे सिंह बंधुओं को वित्तीय पूंजी के साथ-साथ सामाजिक साख भी गंवानी पड़ी है। सरकार अन्य क्षेत्रों की संकट से गुजर रही सरकारी इकाइयों के निजीकरण परध्यान दे। खासतौर पर घाटे में चल रही दोनों सरकारी दूरसंचार कंपनियां जिनमें सुधार की उम्मीद नहीं। इसके अलावा सरकारी बैंकों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए जो बीते पांच सालों में जनता के कई लाख करोड़ रुपये पचा चुके हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।