बेहाल कांग्रेस को कुछ करना होगा | EDITORIAL by Rakesh Dubey

Bhopal Samachar
134 साल पुरानी कांग्रेस का हाल बेहाल है। पिछले कई सालों से ऐसी ही स्थिति बनी हुई है।  कोई माने न माने, पद बचाए रखने या हासिल करने के लालच में कांग्रेस नेता भले ही चाटुकारितावश कुछ न बोलकर तो नेतृत्व का बचाव करते दिखें, पर सच यही है, पार्टी का वर्तमान नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ़ है। सलमान खुर्शीद ने जब यह कहा कि “लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी के इस्तीफे से संकट बढ़ा है। उनके इस फैसले के कारण पार्टी हार के बाद जरूरी आत्मनिरीक्षण भी नहीं कर पाई। हम विश्लेषण के लिए भी एकजुट नहीं हो सके कि हम लोकसभा चुनाव में क्यों हारे? कांग्रेस की हालत ऐसे स्तर पर पहुंच गई है कि न केवल आगामी विधानसभा चुनावों में बल्कि यह अपना भविष्य तक नहीं तय कर सकती है।“ खुर्शीद के इस बयान से पार्टी में बवाल मच गया है।

खुर्शीद के आलोचक सक्रिय हो गये हैं। उन्हें यह बात नहीं कहनी चाहिए, आखिर पार्टी की मर्यादा का सवाल है जैसी तमाम नैतिकतापूर्ण बातें खुर्शीद के खिलाफ कही जा रही हैं। कांग्रेस के नेता राशिद अल्वी ने यह कहकर बयान पर कड़ा ऐतराज जताया कि “कांग्रेस को दुश्मनों की जरूरत नहीं है। घर में आग घर के ही चिराग से लग रही है।“सही मायने में चाटुकारों ने ही कांग्रेस का बंटाढार किया है और इस हालत में पहुंचाया है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को ऐसे बयानों  पर चटखारे लेने का मौका मिला है और यह मौका कांग्रेस के ही चाटुकारों ने ही  दिया है।

वस्तुत: देश की सबसे पुरानी पार्टी भयावह दलदल में धंसती दिख रही है। पार्टी में इन दिनों विद्रोह की स्थिति है। चाहे वह हरियाणा हो या महाराष्ट्र, हर जगह नेता आपस में टकरा रहे हैं। पार्टी में भगदड़ मची हुई है। इसकी जिम्मेदारी अगर किसी की है तो वह सिर्फ और सिर्फ नेतृत्व कीहै । मौजूदा समय में कांग्रेस भंवर में फंसी है। हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने हाल ही में पार्टी छोड़ दी। महाराष्ट्र कांग्रेस में भी विद्रोह जारी है। महाराष्ट्र के नेता संजय निरुपम पार्टी छोड़ने की धमकी दे चुके हैं।निरुपम ने आरोप लगाया कि ज्योतिरादित्य सिंधिया एक बार भी महाराष्ट्र नहीं आए हैं और अपने दोस्तों से बातचीत के आधार पर टिकट बांट दिए हैं। निरुपम ने मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेताओं को बेकार लोग कहा है । आगामी २१  अक्टूबर को होने वाले विधानसभा चुनाव के मतदान से पहले महाराष्ट्र व हरियाणा कांग्रेस में गुटबाजी सार्वजनिक मंचों से सामने आ रही है। हैरान करने वाली बात यह है कि कांग्रेस से बगावत करने वाले नेता सीधे तौर पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को निशाने पर ले रहे हैं और उस पर सवाल उठा रहे हैं। यह नौबत आई ही क्यों? शीर्ष नेतृत्व ने इस तरह के दुष्परिणामों का अनुमान पहले क्यों नहीं लगाया।

सही मायने में कांग्रेस पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों में मिली हार से बाहर नहीं निकल पा रही है। लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद राहुल गांधी जल्दबाजी में पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ गए। श्रीमती सोनिया गांधी को विकल्पहीनता के कारण कांग्रेस का अंतिरम अध्यक्ष बनाया गया। चुनाव से निपटने के बाद जल्द ही नए अध्यक्ष पद का फैसला किया जाएगा। हरियाणा के अशोक तंवर ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देते हुए आरोप लगाया कि कांग्रेस के भीतर कुछ लोगों की वजह से पार्टी अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। उनका यह कहना कि उनकी किसी से निजी लड़ाई नहीं है, बल्कि उस प्रक्रिया से है जो देश की सबसे पुरानी पार्टी को खत्म कर रही है।तंवर जैसे नेताओं की यह बात अब बेमानी है| दरअसल अभी  तक तो वह भी उसी प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं, जिसकी खोट उन्हें अब अपने स्वार्थ में दिखने लगी है। कुल मिलाकर सारी बातें शीर्ष नेतृत्व के आसपास आकर टिक जाती है कि जब यह सब हरियाणा, महाराष्ट्र में पहले से चल रहा था और नेतृत्व इससे बेखबर नहीं था तो समय रहते उपाय क्यों नहीं किए गए?

कांग्रेस का नेतृत्व बचाव के उपाय नहीं कर पा रहा है। यह कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन का भी वक्त है। आज जो विद्रोह सामने है, वह उसी संदेश का नतीजा है, जो लोकसभा चुनाव के बाद नीचे तक पहुंचा है। अशोक चव्हाण, पृथ्वीराज चव्हाण, मोहन प्रकाश, संजय निरुपम, सीपी जोशी हों या फिर मधुसूदन मिस्त्री जैसे नेताओं में फैसले लेने की कमी और फिर उन पर नेतृत्व के अंधाधुंध विश्वास ने इस विद्रोह को जन्म दिया है। इन सभी नेताओं को लगने लगा कि नेतृत्व समर्थ नहीं है, इसीलिए इनमें से कई मनमानी करने लगे थे। सही अर्थों में देश की सबसे पुरानी पार्टी परिवार के बाहर न तो निकल पा रही और न ही उससे बाहर नये नेतृत्व की खोज और स्वीकार कर पा रही है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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