भोपाल। जो बोली भोपाल की पहचान है, वो उर्दू नहीं बल्कि एक नई तरह की भाषा है जो उर्दू के नजदीक है। दोस्त खान के कारण भोपाल मुसलमान राज्य बना वरना यहां की संस्कृति तो रानी कमलापति और गोंड आदिवासियों से शुरू होती है और दोस्त खान के साथ आए मारवाड़ी, मेवाड़ी, मालवी एवं बुंदेलखंडी तक समान भाव से झूमती नजर आती है। भोपाल में जो 'बोली' बोली जाती है वो मुगलों के साथ आई उर्दू नहीं है बल्कि यह 10 भारतीय भाषाओं का मिश्रण है।
भोपाली उर्दू की अपनी पहचान है
भोपाली उर्दू क्या है, कैसे बोली जाती है और कैसे तामीर हुई, इस पर रिसर्च की भोपाल से पढ़ाई कर चुके (2005-12) युवा शायर व लेखक विमलेश घोडेस्वार ने। विम्लेश सत्यजीत रे फिल्म संस्थान से फिल्म मेकिंग में डिप्लोमा करने के बाद मुंबई में रहकर पटकथा लेखन व फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। विमलेश कहते हैं, रिसर्च में मैंने ख़ासतौर पर भोपाली उर्दू क्या है, वो कैसे बोली जाती है और कैसे तामीर हुई, इन सवालों के जवाब ढूंढे हैं।
भोपाली में बेफिक्री और आनंद है
इस ज़ुबान में कौन-कौन सी भाषा शामिल होती चली गई और अब उनके लफ्ज़ किस अंदाज और मायनों में इस्तेमाल किए जाते हैं, इसका जिक्र किया है। भोपाली पहली नज़र में सुनने वालों को एक मसालेदार और एक मज़ाकिया लहज़ा लिए हुई दिखाई दे सकती है, ये ज़ाहिर है कि आम बोल-चाल की ये ज़ुबान गैर संजीदा है, पर ये अंदाजे़ बयानी का फर्क है जो संजीदगी को भी मज़ाक का एक जामा पहनाकर पेश कर देती है, और गहरी से गहरी बात लुत्फ़ो-अंदाज़ से कह देती है।
सन 1700 के आसपास बनी यह भाषा
विमलेश कहते हैं, ज़ुबान-ए-भोपाली वहीं से शुरू होती है, जब से यहां बर्रु के दरख़्त काटे गए और ये शहर भोपाल आबाद हुआ। ये बात सन 1700 के आस-पास की है, जब रानी कमलापति ने दोस्त मोहम्मद ख़ान को भोपाल में बसने का न्याैता दिया। उस वक़्त भोपाल एक मामूली से गांव की शक्ल में था और यहां गोंड ही रहा करते थे। दोस्त मोहम्मद ख़ान के साथ मारवाड़ी, मेवाड़ी, मालवी, बुंदेलखंडी आए और अपनी ज़ुबानें साथ लाए। तब भोपाल रियासत की ज़ुबान फारसी थी, जिसमें यह ज़ुबानें घुलने-मिलने लगी। धीरे-धीरे जो ज़ुबान तामीर हुई वो उर्दू से मिलती-जुलती थी। ‘और ख़ां’ में ख़ां लफ़्ज़ का इस्तेमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ भोपाल में ही होता है, ख़ां यहां आला अफ़सरों को इज्जत देने के लिए बोला जाता था, जो धीरे-धीरे आम बोल-चाल का हिस्सा बन गया।
भाेपाल की ज़ुबान के खास लफ्ज़
विमलेश कहते हैं स्टडी के लिए मैंने ‘उर्दू अदब की तरक़्क़ी में भोपाल का हिस्सा’ के लेखक डॉ. सलीम हामिद रिज़वी की किताब पढ़ी। डॉ रिज़वी ने लिखा है, भोपाली ज़ुबान में कुछ ऐसे अलफ़ाज़ भी हैं, जो भोपाल में ख़ासतौर से इस्तेमाल होते हैं उनमें से एक लफ़्ज़ है ‘अपन’ जो ‘मैं’ या ‘ख़ुद’ की जगह इस्तेमाल होता है, दरअसल अपन के मायने न तो ‘मैं’ से पूरी तरह पूरा होता है, ना हम से।
कुछ नायाब उदाहरण, जो हैं इस शहर की पहचान
भोपाली ज़ुबान में लफ्ज़ों में जो बोलने का तरीका है वो बुंदेली और मालवी से आया। यहां ‘बहुत’ को ‘भोत’, ‘मैं’ को ‘में’, ‘आ रहा हूं’ को ‘आ रिया हूं’ कहते हैं। कुछ लफ़्ज़ जबरन बोले जाते हैं, जैसे ‘ख़ां’, ख़ां लफ़्ज़ ख़ान से बना है, ‘क्यूं’ या ‘क्या’ को ‘को’ कहते हैं, भोपाली किसी से हाल पूछेंगे तो कहेंगे- ‘को ख़ां’। भोपाली किसी भी चीज़ को अंदाज़ या मुहावरों के साथ बोलते हैं, जैसे मुसीबत में फंस जाने को ‘फिलिम उलझ गई’ और किसी चीज़ का असर बताने के लिए कहेंगे ‘भोत तेज़’।
10 से अधिक भाषाओं का मिश्रण है भोपाली
भोपाली ज़ुबान में दूसरी ज़ुबानों के लफ्जाें का इस्तेमाल बख़ूबी हुआ है। उसमें ख़ास तौर पर अरबी, मराठी, हिंदी, पश्तो, बिल्लोची और फ़ारसी के लफ़्ज हैं। कुछ उदाहरणों से समझें भोपाली में बोला जानेे वाला कौन सा शब्द किस भाषा से आया।