मध्यप्रदेश। सरदार सरोवर एक माह पूर्व पूरा भरा | उत्सव हुआ, परन्तु निमाड़ के उन गांवों की संख्या का अब तक पक्का पता नहीं है,कितने डूबे और कितने और डूबेंगे | 26 सितम्बर को कपिल सिब्बल भी इस अखाड़े में उतर रहे हैं | जाने-माने वकील के साथ राजनीतिग्य भी हैं, राजनीति ने ही इस देश में जनांदोलनों का भट्टा बैठाया है| इसी राजनीति ने नर्मदा और उसके किनारे बसे लोगों के मानवीय करुणामय आन्दोलन को गलतबयानी, भ्रष्टाचार और नूराकुश्ती में बदल दिया है |
प्रदेश की वर्तमान सरकार कोई नई जल नीति “जल का अधिकार” के मंसूबे बांध रही है, उसे इस बात की कोई चिंता नही है कि “पुनर्वास सम्पूर्ण” का झूठा शपथ पत्र देने वाले और दिलवाने वाले कहाँ है ? झूठे शपथ पत्र की कहानी जनता से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक है, फिर भी कोई कार्रवाई न होना नूराकुश्ती नहीं तो क्या है ? आश्चर्य है मध्यप्रदेश सरकार इसे अब तक अपराध क्यों नहीं मान रही है | सरदार सरोवर बांध मध्यप्रदेश में अपने दुष्प्रभाव दिखा रहा है | अनेक विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ है | बढती- घटती ऊंचाई के खेल से दो-दो हाथ करते पीड़ित अब जान देने को उतारू हैं | किसी भी क्षण कोई अशुभ सूचना नर्मदा पर बने इसे बांध से आ सकती है.
इस बांध के निर्माण, उसकी वर्तमान स्थिति और केंद्र की विभेदकारी नीति कुछ भी करा सकती है | इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं होगा| सरकारें होंगी| राज्य और केंद्र की सरकार | वैसे हम बाढ़ प्रबंधन के हमारे नजरिये का मूल औपनिवेशिक काल से जोड़ सकते हैं। पूर्वी भारत के डेल्टाई इलाकों में 1803 से लेकर 1956 के दौरान बाढ़ नियंत्रण को लेकर किए गए प्रयोगों का अध्ययन दर्शाता है कि यह इलाका बाढ़ पर आश्रित कृषि व्यवस्था से बाढ़-प्रभावित भूभाग में तब्दील हो गया। सबसे पहले ओडिशा डेल्टा क्षेत्र में जमीन को डूबने से बचाने के लिए नदी के तटीय इलाकों में छोटे बंधे बनाए गए थे। मशहूर इंजीनियर सर आर्थर कॉटन को 1857 में डेल्टाई इलाकों के सर्वे के लिए बुलाया गया था। उन्होंने यह क्लासिक संकल्पना पेश की थी कि 'सभी इलाकों को बुनियादी तौर पर एक ही समाधान की जरूरत होती है।' इस सोच का मतलब है कि नदियों में पानी की अपरिवर्तनीय एवं सतत आपूर्ति बनाए रखने के लिए उन्हें नियंत्रित एवं विनियमित किए जाने की जरूरत है। यह धारणा दोषपूर्ण होते हुए भी भारत में आज भी जल नीति को रास्ता दिखाती है।
केरल में आई भीषण बाढ़ के उदाहरण से हम इसे बखूबी समझ सकते हैं। लगातार तीसरे साल केरल में भीषण बाढ़ आई है। उत्तराखंड में 2013 में आई विनाशकारी बाढ़ की तरह केरल की बाढ़ भी जल-ग्रहण क्षेत्रों के अच्छी स्थिति में होने की अहमियत पर बल देती है। हमें पानी इन जल-ग्रहण क्षेत्रों से ही मिलता है। हिमालय एवं पश्चिमी घाट के नाजुक परिवेश में अंधाधुंध एवं काफी हद तक गैरकानूनी निर्माण कार्य चलने से भूस्खलन का खतरा काफी बढ़ गया है। माधव गाडगिल और कस्तूरीरंगन समितियां पहले ही पश्चिमी घाटों की अनमोल पारिस्थितिकी को अहमियत देने और उनके संरक्षण के अनुकूल विकास प्रतिमान तैयार करने की वकालत कर चुकी हैं। लेकिन इस सलाह को लगातार नजरअंदाज किए जाने से इन इलाकों में रहने वाले लोगों की मुसीबतें बदस्तूर जारी हैं। नर्मदा घाटी से भी इस तरह की खबरें रोज आती हैं |
बिजली उत्पादन की मांग और बाढ़ नियंत्रण की अनिवार्यता के बीच अनवरत संघर्ष होता है। दरअसल बिजली उत्पादन के लिए बांधों के जलाशयों में भरपूर पानी की जरूरत होती है जबकि बारिश का मौसम शुरू होने के पहले इन बांधों के काफी हद तक खाली होने से बाढ़ काबू में रहेगी। किसी भी सूरत में हमारे अधिकांश बांध या तो सिंचाई या फिर बिजली उत्पादन के मकसद से बनाए गए हैं और बाढ़ नियंत्रण इसका दोयम लक्ष्य होता है। प्रथम लक्ष्य तो बाँध के कारण विस्थापितों का पुनर्वास है | विस्थापितों में वे बच्चे भी हैं जिनके सामने जिन्दगी पड़ी है | जल से मंगल की कहानी जग जाहिर है, मध्यप्रदेश में जल से दंगल नामक लिखी जा रही कहानी को बदला जा सकता है | विनोबा कहा करते थे जो कानून से हल न हो करुणा से करें, हो जायेगा | यह कहानी भी करुणा से हल होगी, कुश्ती से नहीं और नूराकुश्ती से तो बिलकुल नहीं |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।