भारतीय जनता पार्टी के एकमेव शीर्ष नेतृत्व अपनी अगली पीढ़ी से नाखुश है। वो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना चाहता है। पीढ़ी परिवर्तन के दौर में ऐसा अक्सर होता है। वंशज तभी ठीक होते हैं, जब अग्रज कोई मिसाल [आदर्श] कायम करें। उलाहने तो वैसे भी बराबरी वालों को दिए जाते हैं, छोटों को पहली गलती पर समझाइश दी जाती है और न समझने पर नसीहत। सीधे नसीहत के परिणाम ठीक कहाँ होते हैं। भारतीय जनता पार्टी का उद्भव जिस पीढ़ी में हुआ था वो किनारे लग चुकी है या किनारे पर खड़ी इशारे [मार्गदर्शन] कर रही है। जिनके मुकुट में अब कलगी खुसी है, वे नसीहत दे रहे हैं, मिसाल बनने की खूबी वो खो चुके हैं। ये जैसे ही किसी को नसीहत देते हैं, इतिहास की तीन उँगलियाँ उनकी ओर होती हैं। ख़ैर ! उनका काम वो जानें।
मेरी पीढ़ी जब जवान हो रही थी तो अन्य पिताओं की तरह मेरे पिताजी ने भी मुझे समझाइश दी थी कि “ मैं जैसा करता हूँ, वैसा मत करना,मैं जैसा कहता हूँ वैसा करना।” भाजपा मध्यप्रदेश में पिछले 15 साल सत्ता में रही केंद्र में भी 5 साल कुछ महीनों से हैं। सब अतिव्यस्त हैं। किसी को वंशज पीढ़ी समझाने सम्हालने की फुर्सत नहीं है, सब वंशज पीढ़ी का भविष्य सुनहरा करने में लगे थे। नतीजा भोपाल की बयानबाजी, नरसिंहपुर गोलीकांड, हरदा का उत्पात और इंदौर की हूल गदागद। अब आप कितने ही नाराज हो, जो जग हंसाई होनी थी, हो गई। अब आप पार्टी से किसे-किसे निकालेंगे। ये तो बच्चे हैं, उन जाम्वंतों की और भी तो नजर डालें जो इन्हें इनकी ताकत का अहसास 24 घंटे कराते रहते हैं।
राजनीति जिस दौर से गुजर रही है, उसमें कोई हवा में राफेल बना देता है, तो कोई शाह बगैर शाहजादा बना दिया जाता है। किसी को अदालत की नसीहत के बाद यह कहना बंद करना पड़ता है कि “चौकीदार चोर है।” इंदौर के क्रिकेट बेट कांड में भी ऐसा ही एक फोटो जारी हुआ बाद में उसकी तफसील। जरा सोंचे इसका उद्गम कहाँ है ? हम देश को कहाँ ले जा रहे हैं और क्यों ? इंदौर की कहानी में यदि नौकरशाही की गलती है, तो यह दोनों सरकारों के लिए ठीक नहीं है। नौकरशाह हमेशा किसी न किसी की शह पर अनुचित करते हैं। ऐसी शह बंद करने की मिसाल होना चाहिए। पुत्र मोह से परे न तो कोई इधर है न उधर। सब ययाति बने रहना चाहते हैं। राज्य करने की उत्कंठा बेटों के सामने याचक बना देती है।
कटाक्ष, दोहरे अर्थों के सम्वाद, नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, में लिप्त रहने या उससे बचने के उपाय सोचने से अग्रज पीढ़ी को फुर्सत मिले तो वे वंशजों के विकास की सोंचे। अच्छा है, कुछ लोगों ने अपने परिवार को इस सब से दूर रखा है। उस साधु की कहानी याद आती है, जो गुड न खाने की नसीहत देने से पहले खुद गुड खाना छोड़ता है। कहीं मिल जाये, तो जरुर पढिये, आगे काम आएगी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।