अफसरशाही के लोहआवरण में कसमसाती जम्हूरियत की लोक आकांक्षाये | MY OPINION by Dr AJAY KHEMARIYA

मप्र कैबिनेट की बैठक में करीब आधे से अधिक मंत्रियों ने मुख्यमंत्री कमलनाथ से शिकायत की है कि उनके विभाग के प्रमुख सचिव उनकी कोई सुनवाई नही करते है। 8 जुलाई से मप्र विधानसभा में बजट सत्र आरंभ हो रहा है। इस कैबिनेट बैठक में मंत्रियों ने आरोप लगाया कि अफसरों ने उन्हें उनके ही विभाग के बजट प्रस्ताव नही बताए औऱ मुख्य बजट में शामिल कर दिए। 

प्रदेश में बड़े अफसरों की मनमानी का यह पहला मौका नही है जब चुने हुए जनप्रतिनिधियों यहां तक की शासन के कैबिनेट मंत्रियों को इस तरह सार्वजनिक रूप से अपनी पीड़ा बयान करनी पड़ी हो।15 साल तक बीजेपी सरकार में कुछ अफसर इतने अधिक पावरफुल रहे कि वे सीएम के अलावा किसी की नही सुनते थे। शिवराज सिंह के कार्यकाल के अधिकतर पावरफुल अफसर कमलनाथ की सरकार में भी अपनी उसी पोजिशन को बनाये रखने में कामयाब है। सीएम सचिवालय में जिस एक अफसर से सबसे ज्यादा बीजेपी विधायक परेशान रहते थे वह आज भी कमलनाथ के सबसे नजदीकी है और शिकायती चेहरे बीजेपी की जगह कांग्रेस के हो गए है। 

इसका मतलब यही है कि वक्त है बदलाब का नारा देकर सत्ता में आई कमलनाथ सरकार के लिये बदलाब के लिये तगड़ी चुनौती मिल रही है। जनता ने अफसरशाही की इसी अकर्मण्यता औऱ जड़ता से आजिज आकर शिवराज सरकार को हटाया था। यही नही बीजेपी का कैडर भी शिवराज सरकार के तीसरे कार्यकाल से बहुत दुखी था क्योंकि अफसर शाही बुरी तरह हावी थी। बीजेपी वर्कर निजी रूप से सरकार की विदाई पर बहुत अफ़सोसजदा नजर नही आये थे। आलम यह था कि राजधानी भोपाल में बीजेपी सरकार के आखरी कार्यकाल मे अधिसंख्य बीजेपी कार्यकर्ताओं ने जाना तक बंद कर दिया था।

मंत्रियों से कार्यकर्ताओं का सँवाद रस्मी भर रह गया था। अफसरों की मनमानी कार्यशैली ने जो नकारात्मक माहौल मप्र बीजेपी वर्कर्स के बीच निर्मित किया उसका नतीजा रहा कि सिर्फ प्रत्याशीयो के निजी लोग ही विधानसभा चुनाव में काम करते दिखे कांग्रेस की तुलना में तीन गुने बागी बीजेपी से अधिकृत उम्मीदवारो के खिलाफ मैदान में थे। मंत्रियों के विरुद्ध कार्यकर्ताओं के आक्रोश का आलम यह था कि शिवराज सरकार के 13 मंत्री चुनाव हार गए और तथ्य यह है कि 7 सीटों की कमी से शिवराज सरकार बनाने से चूक गए।

कमोबेश ऐसे ही हालात मप्र की मौजूदा कमलनाथ सरकार में बनते दिख रहे है प्रदेश के खाद मंत्री ने कैबिनेट बैठक में हीं अफसरों की मनमानी का मामला उठाया। चिकित्सा शिक्षा मंत्री भी प्रमुख सचिव की मनमानी की बात कह चुकी है। इनसे पूर्व भी बैठक में अफसर शाही द्वारा असुनवाई की बात मंत्रियों ने उठाई थी जिसे लेकर कैबिनेट में जबरदस्त विवाद हो चुका है। कैबिनेट मंत्री प्रधुम्न सिंह तोमर सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि जब विभाग के अफसर सुनते ही नही है तो विभाग चलायें कैसे? वस्तुतः मप्र में अफसरशाही का मॉडल जिस रूप में काम कर रहा है उसके मूल में मुख्यमंत्रियों की अफसरपरस्त नीति ही रही है। 

लगातार लंबे समय तक मुख्यमंत्रीयो का कार्यकाल भी एक अहम कारण है दस साल तक सीएम रहे दिग्विजय सिंह का दूसरा कार्यकाल भी अफसरशाही के वर्चस्व के चरम दौर का गवाह रहा है। जब भोपाल में एक वर्ग विशेष के सीनियर आईएएस अफसर ही मुख्यमंत्री के नाक, कान औऱ आंख हुआ करते थे। इन्ही अफसरों ने भोपाल डिक्लेयरेशन जैसे प्रयोग कराये जिसके चलते पूरे प्रदेश से कांग्रेस का सामाजिक रूप से सफाया हो गया था। 2003 तक आते आते खुद कांग्रेसी वर्कर सरकार के विदाई गीत गाने लगे थे। कहा जाता है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह प्रतिदिन जिलों के डीएम और एसपी से फोन पर बात करते थे। नतीजतन सरकार में कांग्रेसी नेताओं की बात का कोई वजन नही रहता था। कई मंत्री अपने ही जिलों में असहाय नजर आते थे। शिवराज सरकार के अंतिम दौर में भी लोग इस स्थिति को दिग्विजय पार्ट 2 कहकर रेखांकित करते थे। 

अब सवाल यह है कि अफसरशाही पर इस हद तक निर्भरता क्या वाकई जमीनी हकीकत से सत्ता प्रतिष्ठान को दूर कर देती है? दिग्विजय सिंह और शिवराज सिंह के संदर्भ में इसका विश्लेषण किया जाए तो इस तथ्य को हमे स्वीकार करना ही पड़ेगा क्योंकि दोनों एक से अधिक कार्यकाल के लिये सीएम रहे है और दोनो थोपे गए सीएम नही थे जनसंघर्षों औऱ संगठन से निकले हुए नेता है लेकिन संगठन और सरकार की सरनचनात्मक व्यवस्था के बुनियादी अंतर को प्रवीणता से भेदने में सफल नही रहे है। अफसर शाही जड़ता औऱ स्वश्रेष्ठता के जन्मजात अवगुण को धारित करती है। उसका नजरिया आज भी अधिकांशतः औपनिवेशिक है और सत्ता में बैठे लोगों को वह कम अक़्ली, भृष्ट, औऱ अस्थाई मानती है।

यूं तो विधान बनाना चुने हुए नेताओ का काम है लेकिन नेता भी जिस असुरक्षा की ग्रन्थि से पीड़ित रहते है उसके दबे तले वे कानूनों के मकड़जाल में ऐसे उलझकर रह जाते है कि वे अपने नजदीकी औऱ ज्यादा से ज्यादा अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोग को संतुष्ट करने तक सिमट कर रह जाते है।5 साल की असुरक्षा से खुद को बचाने के फेर में नेतागण कभी अफसरशाही के आगे आंख में आंख मिलाकर बात ही नही कर पाते है मसलन फ्लेगशिप योजनाओं के लाभ अपने वोटरों को ज्यादा से ज्यादा मिल जाये,सड़क,बिजली,पानी,की योजनाएं सर्वाधिक अपने इलाके को मिल जाये यही बुनियादी मानसिकता मंत्रियों को अफसरशाही की गिरफ्त में लाकर खड़ा कर देता है।

इस तथ्य को यूं समझिये प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री जो भी बनता है वह सबसे पहले अपने इलाके में कॉलेज खोलता है अपने क्षेत्र में प्रोफेसर के ट्रांसफर करा लेता है अपने विभाग के बजट से नई बिल्डिंग स्वीकृत करा लेता है ताकि कल को कोई मंत्री जी को उलाहना न दे सके कि मंत्री रहकर आपने किया क्या?अपने घर मे।अफसरशाही इस काम को पूरी तन्मयता से करती है मंत्री खुश हो जाते है कि चलो अपने इलाके में तो काम हो गया।यह हालत हर विभागीय मंत्री की रहती है औऱ यही पेच है जिससे अफसर आगे चलकर शेष मामलों में खुद मंत्री,विधायक और आम पार्टी कार्यकर्ताओ के लिये खलनायक बन जाते है रही सही कसर तबादलों औऱ दूसरे कामों में बने अलाइंस से पूरी हो जाती है और सरकार चलती रहती है उसी ढर्रे पर जिसका कोई जनोन्मुखी सरोकार नही होता।

मप्र का पिछला 20 साल का अनुभव बताता है कि कैबिनट के तीन चौथाई मंत्री ऐसे रहे है जिन्होंने प्रदेश भर का कभी दौरा नही किया।शिवराज सरकार के दौर में हर मंगलवार को कैबिनेट की बैठक हुआ करती थी मंत्री मंगलवार को भोपाल आते एक दो दिन यहां बिताकर अपने अपने क्षेत्र में रवाना हो जाते थे।34 कैबिनेट मंत्री में शायद ही एक मंत्री हो जिसने अपने विभाग की योजनाओं की जमीनी हकीकत जानने के लिये ग्राउंड  पर दौरे किये हो।जिलों में योजनाओं का क्रियान्वयन जिला अधिकारीयो के हवाले रहता है कलेक्टर नामक संस्था सदैव अपने मातहतों को  सरंक्षण देती है और नतीज़तन बेख़ौफ़ सरकारी तंत्र अपनी मनमानी पर उतारू रहता है।मिसाल के तौर पर शिवराजसिंह ने विधवा पेंशन को कल्याणी योजना में तब्दील कर बड़ी बड़ी घोषणाएं की।अफसरों ने जो ड्राफ्ट बनाकर भेजा उसमें  शर्त लगा दी कि 60 साल की आयु होना चाहिये हितग्राही की।

जब एक विधायक ने अपने इलाके की 50 से अधिक उन विधवाओं के केस अधिकारियों के पास भेजे जो 60 साल से कम आयु की थी तो उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया।विधायक को अफसरों ने कानून दिखा दिया।जमीनी हकीकत यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर आदिवासियों, दलितों में महिलाएं औसत 45 साल में विधवा हो जाती है लेकिन इस जमीनी हकीकत से राजधानी में बैठे अफसर वाकिफ नही होते है।अगर विभागीय मंत्री मैदानी दौरे करें तो ऐसी हजारों विसंगतियों से दो चार हो सकते है।एक बार सरकारी ड्राफ्ट फाइनल होकर प्रसारित हो जाता है उसे बदलने का कोई सरल तरीका इस मकड़जाल में नही है।योजनाओं के मकड़जाल को समझने के लिये मानवीय मस्तिष्क सक्षम ही नही है।

मसलन महिला बाल विकास विभाग में महिला सशक्तिकरण, अटल आरोग्य मिशन,राष्ट्रीय पोषण मिशन,समेकित बाल सरंक्षण योजना,समेकित बाल विकास योजना,बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सबला,लालिमा,जैसी करीब 25 योजनाएं संचालित है।अमूनन हर विभाग में ऐसी ही योजनाओं की भरमार है और इनमे आपस में कोई समन्वय नही है।अफसरशाही ऐसे ही योजनाओं का मकड़जाल खड़ी करती है ताकि आम आदमी तो क्या मंत्री भी इसमें खुद को असहाय समझता है,क्योंकि मंत्रालय और मुख्यमंत्री तक कि जटिल राह पर पहुँच पाना हर मन्त्री विधायक के वश में नही है।
(लेखक राजनीति विज्ञान और लोकप्रशासन के फैलो है)

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