अंकेक्षण उद्योग की साख ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। सनदी लेखाकारों और अंकेक्षक इन दिनों भरोसे के संकट से जूझ रहे हैं। इसमें चौंकाने वाली बात नहीं है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि ये व्यवस्थागत रूप से महत्त्वपूर्ण वित्तीय संस्थानों दबाव में हैं। नियामकों के ने बिना सोचे समझे जो कदम उठाए हैं उससे ये संस्थान प्रभावित हुए हैं और निवेशकों का विश्वास एकदम निचले स्तर पर चला गया है। नियामकीय व्यवस्था बहुत ही संवेदनशील और नाजुक मोड़ है। कॉर्पोरेट और कारोबारी जगत में किसी भी तरह की भूमिका वाले हर व्यक्ति का इस बारे में अच्छा या बुरा होने का अपना नजरिया है। वर्तमान हालात से निपटने के लिए ऐसे कौशल संपन्न लोगों की आवश्यकता है जो शांतिपूर्ण ढंग से हालात से निपटने में सक्षम हों। वैसे, अभी जंग जैसे हालात हैं भी नहीं। कोई भी जंग हो, महंगी होती है और उसके साथ उसके जायज होने भावना स्वाभाविक रूप से आती है. वैसे नियामक और राजनीतिक सत्ताधारी भी इंसान होते हैं और मानवीय भावनाओं से परे भी नहीं होते। किसी भी बात को जंग बना देते हैं। 

इस माहौल में इस बात की काफी आशंका रहती है कि अवांछित चीजों के साथ कुछ मूल्यवान चीजें भी नष्ट हो जाएं। जब ऐसे आरोप लगते हैं कि अंकेक्षक मिलीभगत से बहीखातों में छेड़छाड़ करते हैं या फिर रेटिंग एजेंसियां धोखाधड़ी कर रही हैं तो इसके गहन और गंभीर परिणाम होना तय है। ऐसा केवल आरोपितों के खिलाफ ही नहीं बल्कि समाज के शेष तबके पर भी लागू होती है। सूचना और बाजार के समक्ष उपलब्ध सूचना की सत्यनिष्ठता अहम निर्णय लेने के लिए निर्णायक है। फिर चाहे मामला निवेश का हो, ऋण के निर्णय का, बुनियादी कारोबार या कारोबारी निर्णयों का अथवा नीतिगत निर्णयों का। ऐसे में इन एजेंसियों के खिलाफ लगाने वाले आरोपों को लेकर अतिरिक्त सावधानी और संवेदना बरतनी होगी। अगर इन आरोपों के समर्थन में ज्यादा कुछ नहीं है और ये आरोप हल्के फुल्के ढंग से लगाए जा रहे हैं तो न केवल उनको नुकसान पहुंचता है बल्कि हर उस व्यक्ति को नुकसान पहुंचता है जिसकी निर्णय प्रक्रिया उनकी सेवाओं से प्रभावित होती है। 

उदहारण के लिए उद्योग जगत में उनके द्वारा किया गया काम यदि अच्छी गुणवत्ता वाला नहीं है तो निर्णय प्रक्रिया की गुणवत्ता पर भी बुरा असर होगा और इसका व्यापक सामाजिक असर होगा। यही कारण है कि इस उद्योग की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील हो चुकी है। शायद यही वजह है कि ऐसी गतिविधियों के लिए लाइसेंस प्रदान करने और पंजीयन का काम अत्यंत सख्त निगरानी के बाद किया जाता है। बाजार नियामक के लिए ब्रोकिंग लाइसेंस जारी करना आसान है लेकिन क्रेडिट रेटिंग एजेंसी का लाइसेंस हासिल करना काफी मुश्किल है। इस प्रक्रिया में भी अराजकता का सामना करना पड़ सकता है। इसी प्रकार अगर बीमा क्षेत्र के लोगों के प्रति असंतोष बहुत ज्यादा हो तो इससे अफरातफरी का माहौल बन सकता है। 

ऐसी नियामकीय परिस्थितियों में नियामक की भूमिका को लेकर एक विवाद उत्पन्न हो सकता है कि वह अपने लक्ष्यों तक समझदारी से कैसे पहुंचे और गलत आचरण करने वालों के खिलाफ उसकी भूमिका क्या हो? दोनों लक्ष्यों के बीच द्वंद्व उचित है और वह अहम भी है। उदाहरण के लिए अगर किसी बैंक के खिलाफ बहुत सख्त कदम उठाए जाते हैं तो बैंक में आम जनता का भरोसा समाप्त हो जाएगा। दूसरी ओर अगर किसी गलती करने वाले बैंक को आसानी से छोड़ दिया जाएगा तो ऐसा गलत आचरण करने वालों को बढ़ावा मिलेगा। इससे ऐसी आश्वस्ति पैदा होगी कि बैंक इतने बड़े हैं कि वे कभी नाकाम नहीं हो सकते। 

हमारे देश में बीमा उद्योग का नियमन विशिष्ट तरीके से नहीं किया जाता है। हालांकि हकीकत में ऐसा किया जाना चाहिए। किसी गलत काम में संस्थागत या संगठनात्मक संबद्घता के बावजूद नियम ऐसे होने चाहिए कि बिना व्यक्तिगत रूप से गलती के जिम्मेदार लोगों को बचाए, संस्थान को बचाया जा सके। संकट गहरा रहा है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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