नई सरकार की पहली चुनौती देश की आर्थिक दशा होगी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। लोकसभा के चुनाव (Lok Sabha elections) शनै:-शनै: अपने अंतिम पड़ाव अर्थात परिणाम की और जा रहे हैं। 20 दिन के बाद देश में नई सरकार होगी, यह सरकार किसकी होगी अभी सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। लिखा नहीं जा सकता। सरकार किसी की भी बने, नई सरकार को बनते ही सबसे पहले बजट को नए सिरे से आकलित करना होगा। राजस्व और व्यय (Revenue and expenditure) दोनों ही आंकड़ों में कटौती करनी होगी। आर्थिक (Economic) दशा ठीक नहीं है। 

तीन महीने पहले संसद के समक्ष बजट को लेकर जो आंकड़े प्रस्तुत किए गए, उनकी तुलना 2018-19 के संशोधित राजस्व आंकड़ों से की जाए तो ताजा आंकड़े, कर राजस्व में 1.6 लाख करोड़ रुपये की कमी दिखाते हैं। यानी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का करीब 0.8 प्रतिशत । इस कमी के कुछ हिस्से की भरपाई व्यय में अंतिम क्षणों में की गई कटौती से होगी। वर्षांत में दी गई जानकारी के मुताबिक यह कटौती करीब 60000 करोड़ रुपये की है। यदि इसे ध्यान में रखा जाए तो वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे का आंकड़ा, उल्लेख किए गए जीडीपी के 3.4 प्रतिशत से बढ़कर 3.9 प्रतिशत हो जाएगा। यह शुभ संकेत नहीं है |

आंकड़े कहते हैं केंद्र सरकार की राजस्व वृद्घि केवल 6.2 प्रतिशत रही। अगर यह कमी 19.5 प्रतिशत के अत्यंत महत्त्वाकांक्षी राजस्व वृद्घि लक्ष्य की तुलना में रहती तो इसे समझा जा सकता था। ज्यादा चिंता की बात यह है कि सकल संग्रह में वृद्घि राज्यों के हिस्सेके साथ 8.4 प्रतिशत रही जीडीपी वृद्घि दर से कम है। इसे यूँ समझें कि कर-जीडीपी अनुपात में वृद्धि का रुझान पलट चुका है। वस्तु एवं सेवा कर दरों में निरंतर की जा रही कमी की वजह भी एक कारण है। संभावना है कि मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद मुख्य आर्थिक वृद्घि दर 7% की आधिकारिक तौर पर घोषित दर से कम रह सकती है। मौजूदा वर्ष के लिए यह सब ठीक नहीं हैं। इसलिए चुनाव के बाद नई सरकार बनते ही सबसे पहले बजट को नए सिरे से आकलित करना होगा। राजस्व और व्यय दोनों ही आंकड़ों में कटौती करनी होगी। इसके बाद ही खपत में आए धीमेपन का आर्थिक गतिविधियों पर असर बेहतर ढंग से परिलक्षित होगा। चूंकि सरकार का अधिकांश व्यय ब्याज भुगतान, सब्सिडी, वेतन और पेंशन जैसी पूर्व प्रतिबद्घता वाली चीजों से संबंधित है। इसलिए कटौती की मार बुनियादी ढांचे में होने वाले निवेश पर आएगी। घरेलू स्तर पर, मॉनसून के आशा के अनुरूप रहने की उम्मीद नहीं है।

अभी विमानन और वाहन क्षेत्रों की स्थिति ठीक नहीं है। दूरसंचार क्षेत्र में भी मूल्य ह्रास हो रहा है। निर्माण क्षेत्र भी सरकारी व्यय पर निर्भर है। वित्तीय और कॉर्पोरेट क्षेत्र फंसे हुए कर्ज और ऋण बोझ के दोहरे संकट से उबर चुके हैं और कर्ज में सुधार हुआ है। ऐसे में काफी कुछ करना बाकी है भविष्य में और झटकों की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से दरों में कटौती का बाजार में नकदी की स्थिति पर कोई खास असर देखने को नहीं मिला और वास्तविक ब्याज दर ऊंची बनी हुई हैं।

चुनाव प्रचार अभियान में किए गए लोक लुभावन वादों को इस संदर्भ में देखना होगा। इनमें कर्ज माफी, नकद हस्तांतरण और संभवत: उच्च खाद्य सुरक्षा आदि शामिल हैं। इन बातों के लिए कोई राजकोषीय गुंजाइश नहीं है। वह भी ऐसे वक्त में जबकि मौद्रिक नीति की सीमाओं की परीक्षा हो रही है, तो राजकोषीय व्यय में कमी आनी स्वाभाविक है। खासतौर पर इसलिए चूंकि घाटे के आधिकारिक आंकड़े बैलेंस शीट से इतर ली गई उधारी को छिपाते हैं। सरकारी ऋण और जीडीपी का अनुपात वांछित स्तर से ऊंचा है। खतरे की बात यह है कि चुनाव के बाद बनी सरकार इससे अलग राह चुन सकती है। जिसके परिणाम अपेक्षित है, कितने मुफीद होंगे या नहीं समय बतायेगा। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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