भाजपा : संन्यासी या शहीद | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। चौतरफा दबाव के कारण भोपाल संसदीय सीट पर चुनाव लड़ रही साध्वी प्रज्ञा सिंह (Pragya Singh) को अपना  वो बयान वापिस लेना पड़ा जिसमे उन्होंने हेमंत करकरे (Hemant Karkare) पर विवादस्पद टिप्पणी की थी | सही मायने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का  हेमंत करकरे को लेकर दिया गया बयान उनकी पार्टी के लिए मुसीबत बनता जा रहा था | सवाल यह है की आज के युग में श्राप कितना कारगर होता है और सन्यास ही कितना वीतरागी है | भारतीय समाज में राज्य सत्ता पर अंकुश के लिए समाज सत्ता और धर्म सत्ता की आदर्श बात कही जाती है | वर्तमान में राज्य में भागीदारी के कुटिल समीकरणों ने धर्मं सत्ता का  औजार की तरह इस्तमाल करना शुरू किया जिससे इसके अंकुश का पैनापन अब  समाप्त होता जा रहा है | इतिहास गवाह है जब-जब धर्म समाज और राज्य जैसे प्रतिष्ठान अपने कर्तव्यों से च्युत हुए है, देश ने दुष्काल भोग है | अब तो राजनीति धार्मिक चरित्रों को भ्रष्ट करने पर तुली है | सन्यासी का स्थान समाज से सबसे ऊपर, सत्ता प्रतिष्ठान  को नियंत्रित करने का नियत था | अब इसके विपरीत सन्यासी सत्ता के चेले बनने में गर्व महसूस करते हैं | 

भाजपा ने प्रज्ञा ठाकुर के इस हंगामेदार बयान से दूरी बनाकर उसे उनकी निजी राय कहा है|  भाजपा ने कहा है कि वह हेमंत करकरे को शहीद मानती है| दूसरी तरफ साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने भी अपना बयान वापस ले लिया है और इसके लिए माफी मांगते हुए कहा है कि यह उनका व्यक्तिगत दर्द है| व्यक्तिगत दर्द का निवारण या निराकरण का यह तरीका ठीक नहीं है तो बयान वापिस लेना भी इस विषय का पूर्ण विराम नहीं है |  विषय के उद्गम में घोर राजनीति और तथाकथित अपराध का घालमेल है | जिसका निर्णय भारतीय समाज में  न्यायलय करता है | राजनीति अपने खेल खेलती है, जिससे अनेक बार समाज विभाजित होता है | इस मामले की जद में एक समाज की तुलना में दूसरे समाज को कठघरे में खड़ा करना है | इसके आधार कुछ भी रहे हो या हो अब तक किसी भी सरकार ने कोई निष्पक्ष जाँच नहीं कराई है | भारतीय समाज को यह विषय बाँट रहा है और राजनीति आनन्द ले रही है |
 
अब भजपा ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के बयान से दूरी बनाई है क्योंकि वे उसकी उम्मीदवार हैं | इस उम्मीदवारी चयन का आधार  भी निराला है | “ एक दिन की सदस्यता और लोकसभा का टिकट “ यह पैमाना सिर्फ राजनीति  करने के लिए तय किया गया | विषय वर्षों पुराना है, घाव गहरे हैं, पीड़ा असहय है, लेकिन ऐसे बयानों का क्या औचित्य है ?“आईपीएस अधिकारी हेमंत करकरे उनके द्वारा दिए गए श्राप की वजह से २६/११ के मुंबई आतंकी हमलों में मारे गए थे|”  सन्यास समाज से इतर रहकर समाज पर प्रेमपूर्ण अंकुश का नाम है | सन्यासियों में पूर्ण श्रद्धा के साथ आज समाज यह  कहने को विवश है कि राजनीति की गोद में बैठ कर कुर्सी का मोह सन्यास नहीं है |  टिकट के निर्णय करने वालों की बुद्धि  पर भी सावलिया निशान है.क्या भाजपा के कैडर में राजनीति करने वाले किरदार समाप्त हो गये है ? न तो यह बयान ठीक था और उसकी वापिसी | धर्म सत्ता समाज पर  तभी अंकुश  बन सकती है, जब राजनीति से परे रहे और  तब श्राप की जरूरत नहीं होगी, कोई देख रहा है का भाव ही  बहुत कुछ ठीक कर देगा |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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