बदहाल ग्रामीण SCHOOL, कुछ कीजिये | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। कितनी घटिया बात है की “ है अपना देश कहाँ वो बसा हमारे गावों में की बात करती सरकारे गाँव में शिक्षा के प्रति कितनी उदासीन है| गांवों में स्कूली शिक्षा को बेहतर करने के सरकारी वादों और दावों के बावजूद सच यह है कि आधे छात्र अपनी कक्षा से निचली कक्षाओं की किताबें पढ़ने और गणित के मामूली सवाल हल करने में अक्षम हैं| स्वयंसेवी संस्था प्रथम की सालाना असर रिपोर्ट ने ऐसे अनेक चिंताजनक तथ्यों को रेखांकित किया है| यह रिपोर्ट देश के ५९६ जिलों के ३५४ ९४४ परिवारों के तीन से १६ साल की उम्र के ५ ४६४२७ बच्चों के सर्वेक्षण पर आधारित है.

भले ही कुछ मामलों में गिने-चुने राज्यों के आंकड़े देश के अन्य हिस्सों से बेहतर हैं, पर निचली कक्षाओं में मामूली सुधार को छोड़ दें, तो पूरे देश में शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है| ग्रामीण भारत सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्तर पर भयावह पिछड़ेपन से लगातार जूझ रहा है| ऐसे में किसी कक्षा के आधे या एक फीसदी छात्रों के अपने से निचली कक्षा के पाठ को पढ़ने में पहले की तुलना में सक्षम होने के आंकड़े से संतोष करना या उसे उपलब्धि मानना देश के भविष्य के प्रति आपराधिक लापरवाही करना होगा|

सर्व शिक्षा अभियान, शिक्षा के अधिकार कानून, शिक्षा अधिकर की वसूली जैसे उपायों के बावजूद अगर ग्रामीण छात्र शिक्षित नहीं हो पा रहे हैं, तो यह सरकार और समाज की सोच और दिशा पर बड़ा सवालिया निशान है| असर रिपोर्ट का एक संकेत यह भी है कि आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों- बिहार, झारखंड, बंगाल, असम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि- में समस्या तुलनात्मक रूप से अधिक गंभीर है|

झारखंड, बंगाल, बिहार, गुजरात, राजस्थान और तमिलनाडु में तो पढ़ने की क्षमता पिछली रिपोर्ट के आंकड़ों से भी कम हुई है. लेकिन, यह तथ्य भी चिंताजनक है कि केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी स्कूलों में बच्चियों के लिए शौचालय की व्यवस्था संतोषजनक नहीं है. सरकारी स्कूलों की बदहाली का एक नतीजा बच्चों के निजी स्कूलों की ओर रुख करने के रूप में सामने है|इन स्कूलों पर न तो कोई नियमन है और न ही गुणवत्ता सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था. वहां अभिभावकों को महंगा शुल्क तो चुकाना पड़ रहा है, पर बेहतर शिक्षा की कोई गारंटी नहीं मिलती. बुनियादी पठन-पाठन से रहित छात्रों को कौशल प्रशिक्षण दे पाना भी मुश्किल होगा|

भारत का तो उन उभरती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है, जो शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का मामूली हिस्सा ही खर्च करते हैं| इसे बढ़ाने की जरूरत है| जो शिक्षकों को जरूरी प्रशिक्षण देने और समुचित संसाधन उपलब्ध कराएगा और इससे ही इस दिशा में कुछ संभव हो सकेगा|यह भी जरूरी है कि पाठ्यक्रम पूरा करने की जगह सीखने की क्षमता बढ़ाना पढ़ाई की प्राथमिकता बने. बढ़ती युवा आबादी को रोजगार और जीवनयापन के बेहतर मौके उपलब्ध कराना |फिलहाल एक गंभीर चुनौती बनी हुई है| आज प्रारंभिक स्कूलों में पढ़ रहे 18 करोड़ छात्रों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह व्यवस्था किसी भी दिन दूसरे रूप में खड़ी होगी 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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