2018: जनधन पर प्रबंधकों के गुलछर्रे | EDITORIAL by Rakesh Dubey

NEW DELHI: किसी भी साल के सफल या असफल रहने का नतीजा उस दौरान हुए वित्तीय व्यवहार से लगाया जाता है | आज साल के अंतिम दिन हमें इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनैंशियल सर्विसेज ( IL&FS ) के निदेशक मंडल को बर्खास्त करने के केंद्र सरकार के ३० सितंबर और भारतीय रिजर्व बैंक ( RBI ) के गवर्नर के १० दिसंबर को दिए इस्तीफे पर विचार करना चाहिए। 

आईएलऐंडएफएस की तरलता एवं दिवालिया समस्याओं के बारे में आरबीआई या क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का सही अंदाजा नहीं लगा पाने के खास कारण अभी तक सार्वजनिक नहीं हैं। भारतीय बीमा निगम (LIC), भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया की आईएलऐंडएफएस में क्रमश:२५.३ , ६.४ और ७.७ प्रतिशत हिस्सेदारी थी। इस तरह इस कंपनी में तीनों सार्वजनिक इकाइयों की सम्मिलित हिस्सेदारी करीब 40 फीसदी थी। इस सार्वजनिक हिस्सेदारी ने ही इस 'विशाल एवं व्यवस्थागत रूप से अहम' गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी ( NBFC ) को लेकर लोगों के मन में एक तरह का सुरक्षा बोध पैदा किया था। कंपनी के नए बोर्ड को आंतरिक एवं बाह्यï ऑडिटरों की भूमिका की भी जांच कराने की जरूरत है क्योंकि ऐसा लगता है कि इस समूह की सैकड़ों अनुषंगी इकाइयों ने अपने खातों में गड़बड़ी की है । आईएलऐंडएफएस के कुल ९१००० करोड़ रुपये के कर्ज में से कितनी रकम को जानबूझकर या गलती से ट्रिपल-ए रेटिंग दी गई थी? भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड ( SEBI ) को यह सार्वजनिक रूप से बताना चाहिए कि वह रेटिंग एजेंसियों को उनकी रेटिंग के लिए भविष्य में किस तरह जवाबदेह बनाएगा?

एलआईसी और एसबीआई क्रमश: देश की सबसे बड़ी बीमा कंपनी और सबसे बड़े बैंक हैं। इन दोनों के चेयरमैन आईएलऐंडएफएस के उस बोर्ड में भी शामिल थे जिसे सरकार ने ३० सितंबर को भंग कर दिया। आईएलऐंडएफएस की हरेक इकाई का प्रबंधन अलग था और उनके बोर्ड भी अमूमन अलग थे। एलआईसी और एसबीआई के चेयरमैन के अलावा बीमा नियामक आईआरडीएआई और बैंकिंग नियामक आरबीआई को भी यह बताना चाहिए कि वे इस समूह के जोखिम भरे तरीके को लेकर बेखबर क्यों बने रहे? इस समूह के पिछले बोर्ड में शामिल सदस्यों ने शायद ही कभी इसके वरिष्ठ प्रबंधकों की बेहद आलीशान कार्यशैली और महंगी कारों को लेकर कोई सवाल उठाए थे। नए बोर्ड को यह भी बताना चाहिए कि पिछले दशकों में आईएलऐंडएफएस में अधिक जोखिम होते हुए भी LIC और SBI को अपने निवेश पर मिलने वाला रिटर्न जोखिम-मुक्त सरकारी प्रतिभूतियों की बराबरी कर पाता था? 

आरबीआई ने फरवरी २०१८ के अपने परिपत्र में बैंकों को यह निर्देश दिया था कि वे अंतरराष्ट्रीय परंपरा के अनुरूप एक दिन के भीतर कर्ज चूक की पहचान करें। भुगतान में चूक को एक दिन के भीतर एनपीए के साथ जोड़ दें। इस बेहद जरूरी परिपत्र के मुताबिक एनपीए मामलों को राष्ट्रीय कंपनी कानून अधिकरण ( NCLT ) के सुपुर्द करने की १८० दिनों की मियाद भुगतान में चूक के दिन से ही शुरू होती है। हालांकि आरबीआई ने कर्ज चूक और इरादतन चूक के बीच फर्क नहीं किया 32। क्या यह सार्वजनिक बैंकों में जोखिम के आकलन की क्षमता न होने के कारण हुआ या यह दोस्ताना पूंजीवाद का नतीजा था? साफ है कि अनुमानित नकदी प्रवाह में गिरावट आई क्योंकि पर्यावरणीय एवं भूमि अधिग्रहण संबंधी मंजूरी न होने से कई परियोजनाएं लटक गईं और इस 1`दौरान कच्चे माल की कीमतें भी काफी बढ़ गईं। कुछ मामलों में अनुबंध संबंधी बाध्यताओं के चलते तैयार उत्पाद की कीमत लागत मूल्य से कम हो गई।

आरबीआई, सरकार और सार्वजनिक इकाइयों के पास रखा पैसा आम करदाताओं, बैंक में पैसे जमा करने वालों और बीमा धारकों के हैं। ऐसे में आरबीआई के पास आरक्षित रखे हुए धन की मात्रा को लेकर जारी पूरा विवाद निरर्थक है क्योंकि अंतिम विश्लेषण में तो इन सभी का एक साझा बैलेंस शीट ही है। महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि सार्वजनिक बैंकों को समर्थन देकर सरकार उन्हीं लोगों को प्रोत्साहित कर रही है जो अपने पास आए फंड को अपने और अपने राजनीतिक आकाओं के सुपुर्द करने में लगे रहते हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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