उच्च शिक्षा में हम बहुत पीछे | EDITORIAL by Rakesh Dubey

‘द टाइम्स हायर एजूकेशन’ द्वारा जारी ताजा सूची में बेहतरीन 250 विश्वविद्यालयों में किसी भी भारतीय संस्थान को जगह नहीं मिल सकी है, वैश्विक स्तर पर हमारी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है। हालांकि विभिन्न मानकों के आधार पर तैयार की जानेवाली इस सूची का एक संतोषजनक पहलू यह है कि 251 से 500 शीर्ष संस्थानों में 49 भारतीय हैं। पिछले साल यह संख्या 42 थी ,परंतु इसमें एक निराशाजनक आयाम यह भी है कि या तो सूची में इन संस्थाओं की स्थिति पिछले साल की तरह है या उनमें गिरावट आयी है।

हमारा देश कहने को  दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़नेवाली कुछ अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है। हमारे देश की बहुसंख्यक जनसंख्या युवा है जिसे उच्च शिक्षा, शोध, अनुसंधान और अन्वेषण के लिए समुचित अवसर उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षा तंत्र, विशेषकर उच्च शिक्षा, की बेहतरी पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। ‘द टाइम्स’ की वैश्विक सूची के संपादकीय निदेशक फिल बैटी का बयान भारत के सन्दर्भ में चिंताजनक है। उनका मानना है कि नवोन्मेष और आकांक्षा से पूर्ण भारत में वैश्विक स्तर पर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की महती संभावनाएं हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए निवेश करने, वैश्विक प्रतिभाओं को आकर्षित करने तथा अंतरराष्ट्रीय दृष्टि को ठोस बनाने के निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है।

देखा जाये तो इस वर्ष की सूची में चीन, जापान और सिंगापुर के शैक्षणिक संस्थानों का प्रदर्शन शानदार रहा है। शीर्ष के 50 विश्वविद्यालयों में इन देशों के छह संस्थान शामिल हैं। एशिया में जहां चीन सबसे आगे चल रहा है, वहीं जापान ने उत्कृष्ट संस्थाओं की कुल संख्या के मामले में ब्रिटेन को भी पछाड़ दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में पूर्वी एशिया के इन देशों की उपलब्धियों का मुख्य आधार उच्च शिक्षा में बढ़ता निवेश और स्वायत्तता है।

इन  उदाहरणों में भारत की उच्च शिक्षा नीति के लिए महत्वपूर्ण सूत्र खोजे जा सकते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें समय-समय पर उच्च शिक्षा पर खर्च बढ़ाने और उनके विकास के वादे और दावे तो करती रही हैं, पर नीतिगत स्तर पर और बजट में आवंटन के मामले में लंबे समय से कारगर कदम नहीं उठाये गये हैं। कुल छात्रों की संख्या में महज तीन फीसदी की हिस्सेदारी रखनेवाले तकनीक, इंजीनियरिंग और प्रबंधन के 97 राष्ट्रीय संस्थानों को सरकारी अनुदान का आधा से अधिक हिस्सा मिलता है, जबकि साढ़े आठ सौ से अधिक संस्थानों को शेष कोष से संतोष करना पड़ता है, जिनमे देश 97 प्रतिशत छात्र अध्ययनरत हैं। इस असंतुलन का त्वरित समाधान किया जाना चाहिए।

निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना से भी इस क्षेत्र में कोई बड़ी क्रांति नहीं आई है। हमारे देश विश्वविद्यालय निजी, स्वायत्त शासी या शासकीय नियन्त्रण वाले अक्सर शिक्षा से इतर कारणों से चर्चा में रहते हैं। शिक्षा में बेमानी राजनीतिक और विचारधारात्मक हस्तक्षेप की बढ़ती प्रवृत्ति भी बहुत नुकसानदेह है। सारे निजी विश्वविद्यालय या तो राजनीतिक घरानों के कब्जे में हैं या किसी उद्योगपति द्वारा व्यापार की दृष्टि से संचालित हैं। लोक कल्याण या राष्ट्रहित का उद्देश्य निरंतर समाप्त होता जा रहा है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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