बाजार में निरंतर गिरते दूध के दामों के कारण किसान त्राहिमाम कर रहे हैं। दूध की इस वर्तमान समस्या को एक और ढंग से देखना चाहिए। अभी तक सरकार की रणनीति है कि कृषि उत्पादन बढ़ाकर किसानों का हित किया जाए। पिछले 50 वर्षों में हमारे गांवों में सिंचाई की व्यवस्था में मौलिक सुधार हुआ है। रासायनिक उर्वरक और बिजली उपलब्ध हुई है। उत्पादन बढ़ा है, लेकिन किसानों का अपेक्षित कल्याण नहीं हुआ। कारण यह है कि उत्पादन बढ़ने से किसान का लाभ बढ़ने के स्थान पर उसका नुकसान होता है। उत्पादन बढ़ने से उपज के दाम गिरते हैं। दाम गिरने का लाभ शहरी उपभोक्ताओं को होता है। ऐसे में किसान के हित को साधने के लिए उत्पादन बढ़ाने की रणनीति बिलकुल निर्मूल है।
दूध की वर्तमान समस्या से निपटने का पहला उपाय है कि निर्यात बढ़ाएं। सरकार ने इस दिशा में कुछ सार्थक कदम भी उठाए हैं और दुग्ध उत्पादों पर निर्यात सबसिडी में वृद्धि की है, लेकिन विशेषज्ञ बताते हैं कि इस सबसिडी के बावजूद न्यूजीलैंड में उत्पादित दुग्ध पाउडर की तुलना में हमारा दुग्ध पाउडर करीब 20 प्रतिशत ज्यादा महंगा पड़ता है।
दूसरा संभावित उपाय है कि हम दूध के पाउडर के स्थान पर चीज़ और मक्खन बनाकर उनका निर्यात करें। इसमें भी समस्या यही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीज़ और मक्खन के दाम भी दूध के दाम के अनुरूप ही गिर रहे हैं। इस तरह चीज़ और मक्खन के निर्यात करने में उतनी ही समस्या आएगी, जितनी हम दूध के पाउडर के निर्यात करने में सामना कर रहे हैं।
तीसरा उपाय है कि मध्याह्न भोजन जैसी योजनाओं के अंतर्गत दूध उपलब्ध कराया जाए। कर्नाटक ने ऐसी योजना बनाई है, जिसमें बच्चों को मध्याह्न भोजन के साथ दूध भी दिया जा रहा है। यह एक सार्थक कदम है।
चौथा उपाय है कि भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआई से कहा जाए कि दूध के पाउडर, चीज़ और मक्खन का बफर स्टॉक अधिक रखे। इसमें एक मुश्किल यह है कि मक्खन का भंडारण तीन महीने तक और दूध के पाउडर का भंडारण लगभग एक साल तक ही संभव होता है।
सरकार को अपनी रणनीति कृषि उत्पादन से हटाकर, उत्पाद के उचित वितरण और मूल्य निर्धारण पर केंद्रित करनी चाहिए। तभी हमारे गांवों का विकास हो सकेगा। दूध की समस्या केवल दूध के उत्पादन की समस्या नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के बदलते रूप को न समझने की समस्या है। कृषक का खेती के अलावा पशुपालन भी एक बड़ा व्यवसाय है। पूरे देश में इसे सहकारिता के माध्यम से चलाया जाता है श्वेत क्रांति के परिणाम भी हुए है, पर इससे किसानो की दशा में सुधार नहीं हुआ। डेयरी बड़े शहरों और जिलों के इर्द-गिर्द हैं। यह नेटवर्क और नीचे तक स्थापित हो तो किसान और उपभोक्ता दोनों के लिए लाभप्रद हो सकता है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।