
जम्मू से बेंगलूरु तक और त्रिपुरा से गुजरात तक ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं और ऐसा लगता है उन्हें एक तरह की विकृत स्वीकार्यता मिल गई है। आम धारणा है कि यह समस्या कानून व्यवस्था का मसला है जिसे बेहतर पुलिस व्यवस्था के जरिये हल किया जा सकता है। यह गहन सामाजिक संकट को चिन्हित करने में हमारी नाकामी को दिखाता है।
कई राज्यों में गोवध पर प्रतिबंध लगाए जाने ने भी असामाजिक तत्त्वों द्वारा मुस्लिमों, खासतौर पर पशुपालन से जुड़े मुस्लिमों और दलितों पर हमले की एक वजह दे दी है। हमलावरों को मानो दंड का कोई भय ही नहीं है। अब यह सिलसिला बच्चों के अपहरण तक पहुंच गया है। यह बताता है कि भारतीय समाज में दूसरों को लेकर असहिष्णुता कितनी बढ़ती जा रही है। निश्चित तौर पर ऐसी हर घटना के बाद केंद्र और राज्य के नेताओं के अनुत्साह को देखते हुए यह कहना सही होगा कि इस नई उभरती संस्कृति के लिए हमारा राजनीतिक प्रतिष्ठान भी कम जवाबदेह नहीं है। एक वर्ष बाद ऐसे एक मामले में जब उन अपराधियों में से एक की मृत्यु हुई तो गांव के लोगों ने उसके शव को तिरंगे में लपेटकर उसे शहीद की तरह प्रस्तुत किया।
राजस्थान में एक मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता की उस वक्त हत्या कर दी गई जब वह लोगों को खुले में शौच कर रही महिलाओं की तस्वीरें खींचने से रोक रहा था। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इसे 'दुर्भाग्यपूर्ण' बताया। बिना किसी प्रमाण के उन्होंने यह तक कह दिया कि हो सकता है उसकी हत्या न की गई हो। यह तब हुआ जबकि कई दिनों से पीडि़त को जिंदा जलाने के वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहे थे। त्रिपुरा में एक राज्यमंत्री ने अनजाने ही यह कह कर हिंसा को भड़का दिया कि एक मृत मिले बच्चे के गुर्दे निकाले गए थे। राजनीतिक प्रतिष्ठान द्वारा ऐसी घटनाओं पर अंकुश न लगा पाने से यह संकेत गया है कि ऐसी हत्याओं को बरदाश्त किया जा सकता है। खासतौर पर अगर ऐसी घटना अल्पसंख्यकों, आदिवासियों या दलितों के साथ घटित हो। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए| सूचना प्रसारण के इस माध्यम का उपयोग सरकार कानून व्यस्था, शांति और विकास के कार्य में भी तो कर सकती है।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।