व्हाट्स एप नहीं मूल में राजनीति है ! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

जल्दी ही सरकार व्हाट्स एप के सम्बन्ध में कोई नये प्रतिबन्धात्मक कदम उठाने जा रही है  इसके मूल में बच्चा चोरी के संदेह में मारे जाने की घटनाएँ हैं। इसके बाद व्हाट्सऐप की काफी आलोचना हो रही है। यह वैसा ही है जैसे मूल मुद्दे की अनदेखी करके गैर जरूरी बातों को तवज्जो दी जाए। यह सच है कि इस नि:शुल्क संदेश प्रसारित करने वाली सेवा ने गलत सूचनाओं को तेजी से फैलाने का मंच दिया है लेकिन इससे यह नहीं स्पष्ट होता कि आखिर क्यों इतनी बड़ी तादाद में आम भारतीय इस कदर असुरक्षा से भर गए कि उन्हें कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेना पड़ा। कैसे उनमें इतना साहस आ गया कि वे दिन दहाड़े अपने साथी नागरिकों की जान ले सके? इससे यह भी समझ में नहीं आता है कि आखिर क्यों सरकार ने इसी मंच का इस्तेमाल करते हुए नुकसान पहुंचाने वाली अफवाहों का विरोध नहीं किया और बाद में घटी भयावह हिंसा को रोका नहीं।

जम्मू से बेंगलूरु तक और त्रिपुरा से गुजरात तक ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं और ऐसा लगता है उन्हें एक तरह की विकृत स्वीकार्यता मिल गई है। आम धारणा है कि यह समस्या कानून व्यवस्था का मसला है जिसे बेहतर पुलिस व्यवस्था के जरिये हल किया जा सकता है। यह गहन सामाजिक संकट को चिन्हित करने में हमारी नाकामी को दिखाता है। 

कई राज्यों में गोवध पर प्रतिबंध लगाए जाने ने भी असामाजिक तत्त्वों द्वारा मुस्लिमों, खासतौर पर पशुपालन से जुड़े मुस्लिमों और दलितों पर हमले की एक वजह दे दी है। हमलावरों को मानो दंड का कोई भय ही नहीं है। अब यह सिलसिला बच्चों के अपहरण तक पहुंच गया है। यह बताता है कि भारतीय समाज में दूसरों को लेकर असहिष्णुता कितनी बढ़ती जा रही है। निश्चित तौर पर ऐसी हर घटना के बाद केंद्र और राज्य के नेताओं के अनुत्साह को देखते हुए यह कहना सही होगा कि इस नई उभरती संस्कृति के लिए हमारा राजनीतिक प्रतिष्ठान भी कम जवाबदेह नहीं है।  एक वर्ष बाद ऐसे एक मामले में जब उन अपराधियों में से एक की मृत्यु हुई तो गांव के लोगों ने उसके शव को तिरंगे में लपेटकर उसे शहीद की तरह प्रस्तुत किया। 

राजस्थान में एक मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता की उस वक्त हत्या कर दी गई जब वह लोगों को खुले में शौच कर रही महिलाओं की तस्वीरें खींचने से रोक रहा था। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इसे 'दुर्भाग्यपूर्ण' बताया। बिना किसी प्रमाण के उन्होंने यह तक कह दिया कि हो सकता है उसकी हत्या न की गई हो। यह तब हुआ जबकि कई दिनों से पीडि़त को जिंदा जलाने के वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहे थे। त्रिपुरा में एक राज्यमंत्री ने अनजाने ही यह कह कर हिंसा को भड़का दिया कि एक मृत मिले बच्चे के गुर्दे निकाले गए थे। राजनीतिक प्रतिष्ठान द्वारा ऐसी घटनाओं पर अंकुश न लगा पाने से यह संकेत गया है कि ऐसी हत्याओं को बरदाश्त किया जा सकता है। खासतौर पर अगर ऐसी घटना अल्पसंख्यकों, आदिवासियों या दलितों के साथ घटित हो। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए| सूचना प्रसारण के इस माध्यम का उपयोग सरकार कानून व्यस्था, शांति और विकास के कार्य में भी तो कर  सकती है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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