महिला रोजगार में भारत फिसड्डी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

पिछले दशक में संगठित तथा असंगठित, दोनों ही तरह के भारतीय कामगारों में महिलाओं की भागीदारी में लगातार गिरावट आयी है और 2.5 करोड़ कामकाजी महिला कामगार कार्यक्षेत्र से बेदखल हुई हैं। ‘बेटी पढ़ाओ’ सरीखी योजनाओं से फायदा लेकर बच्चियां स्कूल जरूर जाने लगी हैं, पर स्कूल पास कर लेने से क्या?रोजगार दिलाने और कार्य स्थल पर लैंगिक विभेद और शोषण के मामले बड़े हैं। थामसन रायटर्स फाउंडेशन की एक ताजा रपट के हिसाब से भारत महिलाओं के लिए आज दुनिया का सबसे असुरक्षित देश बन चुका है।

आज भाजपा चुप है 2011 में भाजपा ने महिला असुरक्षा के बाबत आती रपट को लेकर मनमोहन सिंह सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। आज जब भाजपा जवाबदेह है, तो कहा जा रहा है कि यह रपट तो पश्चिम के कुछ जाने-माने विशेषज्ञों की राय पर आधारित है, हमारे ताजा अभिलेख पर नहीं। जहां तक सरकारी अभिलेख  का सवाल है, खुद प्रधानमंत्री ने कहा है कि कुछ वजहों से सरकार के पास ताजा रोजगार संबंधित सरकारी डाटा उपलब्ध नहीं है, और वे जनता को आश्वस्त करना चाहते हैं कि डरने की कोई बात नहीं, बेरोजगारी कम हो रही है और अर्थव्यवस्था फलफूल रही है।

वर्तमान में जिस तरह युवा बेरोजगारी से परेशान हैं और घरेलू हिंसा, रेप और यौन बाजार में बच्चियों-औरतों की जबरिया खरीद-फरोख्त सरीखे गंभीर अपराध शहर से गांवों तक बढ़ रहे हैं। इसके विपरीत हर नकारात्मक रपट को किसी सरकार विरोधी अंतरराष्ट्रीय साजिश की तरह देखना सरकार का तर्क बन गया है। महिला रोजगार की बाबत ठोस सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2014 से 2016 तक कुल 4.3 लाख नये रोजगारों का ही सृजन हुआ, जो घोषित संख्या का आधा भी नहीं है।

खुद सरकार के 2106 के श्रम आयोग (लेबर ब्यूरो) के आंकड़ों के अनुसार, मनरेगा योजना के तहत पिछले सालों की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक बेरोजगारों ने रोजगार के लिए आवेदन किया, जो सुस्त पड़ते शहरी उद्योग जगत और ग्रामीण इलाकों में बढ़ती बेरोजगारी का प्रमाण है। इनमें से भी 1.6 करोड़ आवेदकों को मनरेगा के तहत अनियतकालीन (साल में 120 दिन) काम तक नहीं मिला।

संस्था ई-पॉड (एविडेंस फॉर पॉलिसी डिजाइन) ने भारतीय कामगार भारतीय महिलाओं की स्थिति पर सिकुड़ती शक्ति शोध रपट जारी की है, जिसके मद्देनजर इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में महिलाओं पर (तत्कालीन) मुख्य आर्थिक सलाहकार ने ध्यान दिलाया और यह दर्ज कराया कि पिछले दशक में संगठित तथा असंगठित, दोनों ही तरह के भारतीय कामगारों में महिलाओं की भागीदारी में लगातार गिरावट आयी है। संगठित क्षेत्र को उच्च तकनीकी डिग्री और अंग्रेजी जाननेवाले दक्ष हाथ चाहिए। नतीजतन विकासशील देशों के गुट ‘ब्रिक्स’ में हम महिलाओं को रोजगार देने के क्षेत्र में सबसे निचली पायदान पर और जी-20 देशों की तालिका में नीचे से दूसरी पायदान पर आ गये हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का सीधा आकलन है, कि अगर आज भारत में काम करने की इच्छुक तमाम महिलाओं को रोजगार मिल जाये, तो भारत की कुल राष्ट्रीय आय में 27 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी संभव है।

यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि कामकाजी महिलाएं कम उम्र में मां नहीं बनतीं, उनके बच्चों के बीच का अंतराल भी सही होता है। जो विवाहिता लड़कियां काम पर जाती हैं, उनके परिवार अन्य बहनों की शादी भी असमय नहीं करते। कामकाजी महिलाएं अपनी बेरोजगार बहनों की तुलना में स्वतंत्र फैसले लेने में कम दब्बू और बेहतर रोजगार की खोज में बाहर जाने के लिए कहीं अधिक उत्साही होती हैं। भारत सरकार की राष्ट्रीय सैंपल सर्वे रपट के अनुसार, आज ५०  प्रतिशत महिलाओं में लगभग दो-तिहाई गृहिणियां काम करने की इच्छुक हैं। बशर्ते  उनको अपने घर के करीब रोजगार मिले, तब तो इस तादाद में अतिरिक्त 21 प्रतिशत की बढ़ती हो सकती है। घर के पास रोजगार उपलब्ध होने से ही ‘मनरेगा’ में उनकी भागीदारी पुरुषों (48 प्रतिशत) से अधिक (52 प्रतिशत) है। हमारे युवा रोजगार अभ्यर्थियों में 68 प्रतशित युवक और 62 प्रतिशत युवतियां इस पक्ष में हैं कि अगर अच्छा रोजगार पाने के लिए घर से दूर जाना पड़े, तो अवश्य जाना चाहिए। अब बारी सरकार की है, उसे कुछ करना चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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