क्या LIC में जमा पैसा डूब जाएगा, मोदी सरकार के फैसले पर उठे सवाल

यदि आपने भी LIC की किसी योजना मे निवेश कर रखा है तो कृपया सावधान। इस खबर को ध्यान से पढ़ें और इसके फालोअप पर भी नजर बनाए रखें। पीएम नरेंद्र मोदी सरकार का एक फैसला आपका सारा निवेश डुबा सकता है। भरोसे का दूसरा नाम LIC अब भरोसेमंद नहीं रह जाएगा। 60 साल में पहली बार विशेषज्ञों ने LIC के भविष्य के प्रति चिंता जाहिर की है। केन्द्र सरकार ने देश में सरकारी बैंकों के सामने खड़ी एनपीए (NPA- Non Performing Assets) की समस्या को निपटाने की नई कवायद शुरू की है। साल के शुरुआत में बैंकों को एनपीए से मुक्त कराने के लिए जनवरी में केन्द्र सरकार ने 2.1 लाख करोड़ रुपये के रीकैपेटलाइजेशन प्रोग्राम को मंजूरी दी। वहीं अब वह सर्वाधिक एनपीए अनुपात वाले IDBI बैंक को देश की सबसे बड़ी इंश्योरेंस कंपनी लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (LIC) के हवाले करने की तैयारी में है।

एलआईसी में देश की अधिकांश जनता की जमा-पूंजी है और वह प्रतिवर्ष अपनी बचत से हजारों-लाखों रुपये निकालकर एलआईसी की पॉलिसी में डालता है। इस पैसे के सहारे उसका और उसके परिवार का भविष्य सुरक्षित रहता है लेकिन अब केन्द्र एक सरकारी बैंक को बचाने की कवायद में इसे एलआईसी के हवाले करने जा रही है। इसका साफ मतलब है कि आप प्रतिवर्ष जो पैसा एलआईसी की पॉलिसी के लिए बतौर प्रीमियम जमा करते हैं अब उसका इस्तेमाल बैंक को डूबने से बचाने के लिए किया जाएगा।

सवाल क्यों?
लेकिन क्या यह फैसला देश में एलआईसी के ग्राहकों के हित में है? क्या केन्द्र सरकार का यह फैसला इस बात की गारंटी देता है कि इससे IDBI की एनपीए की समस्या दूर हो जाएगी? और अंत में क्या इस फैसले से एलआईसी के ग्राहकों का उनके जीवनकाल का सबसे बड़ा निवेश सुरक्षित रहेगा?

अभी क्या है IDBI बैंक की हालात?
मौजूदा समय में देश के 21 सरकारी बैंकों में शुमार IDBI बैंक में केन्द्र सरकार की 85 फीसदी हिस्सेदारी है। वित्त वर्ष 2018 के दौरान केन्द्र सरकार ने अपने रीकैपिटलाइजेशन प्रोग्राम के तहत बैंक की मदद करने के लिए 10,610 करोड़ रुपये डाला है। वहीं IDBI बैंक देश के बीमारू सरकारी बैंकों में सर्वाधिक एनपीए अनुपात वाला बैंक है।

बीते कुछ वर्षों के दौरान बैंकिंग सुधार के नाम पर केन्द्र सरकार ने बीमार पड़े सरकारी बैंकों में अपनी हिस्सेदारी को कम करने की रणनीति पर काम किया है। इस रणनीति के तहत IDBI से हिस्सेदारी कम करना केन्द्र सरकार के लिए सबसे आसान है क्योंकि IDBI बैंक नैशनलाइजेशन एक्ट के तहत नहीं आता और हिस्सेदारी कम करने में उसे किसी तरह की कानूनी अड़चन का सामना नहीं करना पडेगा।

वहीं देश की सबसे बड़ी जीवन बीमा कंपनी एलआईसी लंबे समय से बैंकिंग कारोबार में जगह बनाना चाह रही है। इसकी अहम वजह उसके पास बड़ी मात्रा में पड़ा कैपिटल है जो देशभर में एलआईसी पॉलिसी के ग्राहकों द्वारा बतौर प्रीमियम एकत्र किया जाता है। हालांकि पूर्व में केन्द्र सरकार ने एलआईसी के पास पड़े इस पैसे से अधिक कमाई करने के लिए उसे शेयर बाजार में निवेश करने की भी मंजूरी दे दी थी। इस फैसले से भी एलआईसी के ग्राहकों की जमा पूंजी पर खतरा बढ़ गया था।

वहीं खुद एलआईसी बैंकिंग में एंट्री के लिए पूर्व में न सिर्फ IDBI बल्कि लगभग सभी सरकारी बैंकों में कुछ हिस्सेदारी खरीद के बैठी है। लिहाजा, मौजूदा समय में जब केन्द्र सरकार बैंकिंग सुधार के नाम पर IDBI की हिस्सेदारी छोड़ने की कवायद कर रही है तो एलआईसी के लिए भी मौका खुद के लिए एक बैंक तैयार करने का है।

फैसले का वक्त
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार इस प्रस्ताव पर इंश्योरेंस रेगुलेटर का दरवाजा खटखटा चुकी है। वहीं मौजूदा समय में बिना बैंक हुए भी एलआईसी लोन मार्केट का एक बड़ा खिलाड़ी है। वित्त वर्ष 2017 के दौरान एलआईसी ने 1 ट्रिलियन रुपये से अधिक का कर्ज बाजार को दिया था और इसी कर्ज के कारोबार को बनाए रखने के लिए उसने लगभग सभी सरकारी बैंकों में कुछ न कुछ हिस्सेदारी खरीद कर रखी है। लेकिन अब खुद बैंक की भूमिका में आ जाने के बाद एलआईसी के सामने भी वही चुनौती होगी जिसके चलते ज्यादातर सरकारी बैंक गंदे कर्ज बांटकर एनपीए के जाल में फंसे हैं। वहीं इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि एलआईसी के पास स्वतंत्र रूप से बैंक चलाने की क्षमता है और वह जनता के पैसे को सुरक्षित रखने में किसी अन्य सरकारी बैंक से ज्यादा सक्षम है।
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