अपर्याप्त कानून और बांधों की सुरक्षा | EDITORIAL

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। बारिश जब आएगी, तब आएगी अभी तो मौसम की मार देश झेल रहा है। मौसम का मिजाज़ ओर मीजान मिलाने में हमारा हाथ हमेशा तंग रहा है। बाँधों को ही लें, पिछले सात दशक में  पचास से अधिक बांध टूट चुके हैं, गुजरात का मच्छू डैम इसमें से एक था। जिसकी टूट ने बहुत भीषण तबाही मचाई थी। इसके अतिरिक्त लगभग प्रत्येक वर्ष ही बड़े बांधों से अचानक पानी छोड़ने के कारण जो अधिक प्रलयंकारी बाढ़ आती है, उसकी विनाशलीला अलग है। कुछ बांधों के बनने के बाद आसपास के क्षेत्र की भूकंपीयता बढ़ गई है, यह भी एक गंभीर समस्या है। हालांकि हमारे यहां या तो इन बातों को जांचा नहीं गया, या फिर जांचा गया तो जनता के सामने लाया नहीं गया।

पर्यावरण मंत्रालय की नदी घाटी परियोजनाओं से संबद्ध विशेषज्ञों की एक समिति ने टिहरी बांध के संदर्भ में भी कहा था कि इस परियोजना की सुरक्षा संबंधी चिंताएं असहनीय हद से भी अधिक हैं और इन्हें ध्यान में रखते हुए इस परियोजना को त्याग देना चाहिए। इतनी स्पष्ट प्रतिकूल संस्तुति के बावजूद भी टिहरी परियोजना के कार्य को तेजी से आगे बढ़ाया गया। याद रहे कि वर्ष 1977-78 में टिहरी परियोजना के विरुद्ध जब आन्दोलन हुआ, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने सन् 1980 में इस परियोजना की समीक्षा के आदेश दिए थे। उस समय केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित भूम्बला समिति ने इस परियोजना को रद्द कर दिया था।  

वैसे भी अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार जहां भी चट्टान आधारित बांध बनते हैं वे अति सुरक्षित क्षेत्र में होना चाहिए। विशेषज्ञों ने तब यह भी कहा था कि हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र काफी कच्चा है। इसलिए गंगा में बहने वाले जल में मिट्टी की मात्रा अधिक होती है। देश की सभी नदियों से अधिक मिट्टी गंगा जल में रहती है। ऐसे में जब गंगा के पानी को जलाशय मे रोका जाएगा तो उसमें गाद भरने की दर देश के किसी भी अन्य बांध में गाद भरने की दर से अधिक होगी। गाद भरने की दर के अनुमान के मुताबिक टिहरी बांध की अधिकतम उम्र 40 वर्ष ही आंकी गई है।

देश में बड़े बांधों का कई स्तरों पर विरोध हुआ था। देश का ग्रामीण इलाका, किसान सारे सरकारी वादों के बावजूद बड़े बांधों के विरोध में थे। ग्रामीण और किसान डूब में जा रही अपनी खेतिहर जमीन और गांवों को लेकर चिंतित थे। फिर भी ये बांध बने। राष्ट्र निर्माताओं का तर्क था कि बहु-उद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं का मकसद बहुमुखी है, और इससे न केवल ग्रामीण इलाके बल्कि पूरे देश का विकास होगा। खेतिहर वर्ग के लिए सिंचाई का प्रबंध, पनबिजली के उत्पादन से उद्योगधंधों का विकास, शहरों को बिजली, बाढ़ नियंत्रण,पर्यावरण की रक्षा, अन्त:-स्थलीय नौपरिवहन का विकास, भू-संरक्षण और मछली पालन का विकास और इन सभी से जुड़े अनगिनत लोगों को रोजगार मिलेगा। इसके साथ इन बांधों की सुरक्षा की अनदेखी ने आज समूचे देश को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है।

एक कानून है, बांधों की सुरक्षा के लिए बांध सुरक्षा विधेयक। बेहद कमजोर व अप्रभावी है। उसमें बांध के विफल होने या सुरक्षा के प्रावधानों की अवहेलना की स्थिति में समुचित दंड की व्यवस्था नहीं की गई है। बिल में प्रभावित या क्षतिग्रस्त लोगों के मुआवजे का प्रावधान नहीं है। किसी स्वतंत्र नियमन की व्यवस्था भी बिल में नहीं है। देश में हाल के वर्षों में कई बांध टूटे हैं। आज देश में छोटे बड़े तकरीबन पांच हजार बांध हैं। अधिकांश पुराने और जर्जर हो चुके हैं। सरकार के लिए यह जरूरी है कि बांधों की सुरक्षा को तवज्जो दे और बांध सुरक्षा कानून में जरूरी सुधार करे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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