मदिरा माफिया और मध्यप्रदेश सरकार | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। यह समझना मुश्किल होता जा रहा है कि प्रदेश सरकार को बड़ा राजस्व देने वाले आबकारी विभाग को कौन संचालित कर रहा है ? सरकार दम भरती है, कि वो नीति बनाती है अत: विभाग उसके इशारों पर चलता है, अफसरों को गुमान है कि इस कमाऊ पूत की कमान वे संभाले हैं, लेकिन ऐसा हकीकत में नहीं है। जमीनी हकीकत कुछ और है विभागीय वेब साईट से लेकर आबकारी आसवनी, वेयर हॉउस और दुकान तक एक माफिया संचालित करता है जिसके नाम बदलते रहते हैं। करोड़ों के ठेके चुटकी में ले लेने वाले ठेकेदार या तो हकीकत में किसी बड़े शराब व्यवसायी के यहाँ चौकीदार, वाहन चालक भी निकल सकते हैं। 

ठेका लेने के बाद किसी भी क्षण अंतर्ध्यान हो सकते है। करोड़ों की लायसेंस फ़ीस देने वाले ऐसे किसी झुग्गी बस्ती के निवासी भी निकल सकते हैं। इस सब पर निगाह रखने वाले विभाग की नजर सिर्फ लायसेंस फीस आने तक होती है, इस फीस के चेक ड्राफ्ट तक नकली मिले हैं। इस विभाग में वर्षों से जमे ठेकेदार कई बार ब्लेक लिस्ट में डाले जाते हैं, हर साल नये नाम और शक्ल के साथ फिर नीलामी में उनकी मौजूदगी होती है कभी उसका स्वरूप किसी गुरुप में हिस्सेदार का होता है तो कभी लायसेंसी का। सौजन्य इतना कि सारे अधिकारी सारे ठेकेदार सब जानते हैं, फिर भी कोई न बोलने को तैयार है और न कोई कुछ करने को। ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की प्रदेश में शराब बंदी घोषणा को माफिया सफल नहीं होने देगा।

मुख्यमंत्री जी की कैबिनेट के एक वरिष्ठ सदस्य के परिवार से प्रकाशित पत्रिका के अंक माफिया के पकड़ की कहानी कहते हैं। इस पत्रिका में भारत में निर्मित विदेशी मदिरा या देशी मदिरा के मुख्य अंश अल्कोहल को आसवित करने वालों के विज्ञापन छद्म कम्पनियों के नाम से छपते हैं।  ऐसा कोई अल्कोहल उत्पादक नहीं है जिसने अपनी अनुषांगिक कम्पनी के प्रचार के लिए इस पत्रिका का प्रयोग नहीं किया हो। यह विभागीय सौजन्य का पहला पायदान है।

विभाग के अधिकारियों को यह देखने का समय नहीं होता की उनके नाक के नीचे क्या हो रहा है? इंदौर जिले की लायसेंस फ़ीस के बैंक ड्राफ्ट के अंकों की हेराफेरी की कहानी जग जाहिर हुई है। ऐसी कई जाँच और कहानी मोतीमहल के गलियारे से सुदूर अंचल में बसे किसी जिले तक सुनने को मिलती है। हर कहानी के केंद्र में एक निर्माता और वितरक होता है और उसके आसपास मोतीमहल से लेकर सचिवालय तक सब वर्षों से हैं और इसे रोकने टोकने की हिम्मत किसी में नहीं है। ऐसे में शराब बंदी सपना लगती है। इस अंतहीन कहानी के कई जहरीले आयाम भी है, पर सबके अपने हित है। शराब बंदी का जुमला उछलता हुआ अच्छा लगता है, हकीकत में कुछ होता नहीं है। हर जिले में हर साल आबकारी से आने वाला राजस्व कौन तय करता है ? यह पहला सवाल है, अनेक सवाल खड़े हैं जवाब की प्रतीक्षा में।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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