केंद्र राज्य और लोक कल्याण, एक यक्ष प्रश्न ? | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। केंद्र और राज्यों के आपसी सम्बन्धों की अस्पष्टता का ही विस्तार है सत्तारूढ़ राजग और  तेलंगाना में सत्तारूढ़ दल का विवाद। इस सबमे वे तत्व पीछे होते जा रहे है जो राज्य के विकास और राष्ट्र की मजबूती के लिए जरूरी है। अभी तो तेलंगाना हो, बिहार हो या अन्य कोई राज्य अपने हित की बात भयादोहन के रूप में कर रहे है और केंद्र राज्य के समर्थन का राजनीतिक फायदे के रूप में कर रहा है। लोक कल्याण तो प्राथमिकता सूची से नदारद है। उदहारण तेलंगाना का लें तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह के बीच हालिया विवाद यह बताता है कि कैसे तेलंगाना के अलग राज्य के रूप में गठन का आर्थिक प्रभाव अभी भी राज्य की राजनीति को प्रभावित कर रहा है। 

आंध्र प्रदेश के राजनेताओं को हमेशा यह आशंका रही है कि हैदराबाद के तेलंगाना में शामिल होने के बाद प्रदेश के राजस्व पर बहुत नकारात्मक असर होगा। यही वजह है कि उन्होंने राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग की। इस दर्जे के तहत राज्य को मिलने वाली केंद्रीय सहायता में वृद्घि की जाती है। आमतौर पर यह सहायता पहाड़ी, दूरवर्ती और आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों के लिए होती है। वस्तुत: जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने मौखिक रूप से विशेष राज्य का दर्जा देने की बात कह कर राज्य के विभाजन को आसान बनाया। परंतु भाजपानीत राजग सरकार के कार्यकाल में यह दर्जा नहीं दिया गया। नायडू के लिए यही सबसे बड़ी राजनीतिक शर्मिंदगी का विषय बन गया। और क्यों न बनता क्योंकि उनकी पार्टी राजग की सदस्य थी। इसलिए विपक्ष, खासतौर पर वाईएसआर कांग्रेस को रोकने के लिए नायडू ने अपने दल तेलुगू देशम को अब राजग से अलग कर लिया। 

केंद्र सरकार तो नहीं राजग की मंशा के अनुरूप शाह ने गत सप्ताह नायडू को नौ पृष्ठों का पत्र लिखकर बताया कि केंद्र आंध्र प्रदेश की जितनी सहायता कर सकता था उसने उतनी की। उन्होंने इस आधार पर तेलुगू देशम के राजग से अलग होने की आलोचना भी की। शाह ने केंद्र की सहायता वाली कई विकास परियोजनाओं का जिक्र करते हुए आरोप लगाया कि तेलुगू देशम की सरकार दिए गए फंड का सही इस्तेमाल नहीं कर पाई। केंद्र सरकार की दलील है कि किसी नए राज्य को यह दर्जा नहीं दिया जा सकता है। उसने एक स्पेशल परपज व्हीकल (एसपीवी) गठित करने की बात कही थी। इसके तहत कुछ अतिरिक्त फंड दिया जा सकता है। नाराज नायडू ने यह पत्र राज्य विधानसभा में पढ़ा और कई सवालों के जवाब भी दिए। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने राजस्व घाटे का आकलन किया था, यह भी कहा गया कि नए पूंजी फंड में से ३२ प्रतिशत व्यय किया गया, न कि ८ प्रतिशत। यहाँ इस तथ्य पर भी गौर करना जरूरी है एसपीवी के जरिये आने वाले फंड पर निर्वाचित नेताओं का नियंत्रण नहीं होता और इस तरह यह राज्य के हितों और संप्रभुता को प्रभावित करता है। 

अब देखना यह है की २०१९ के चुनाव के पहले केंद्र सरकार इस मामले को कैसे सुलझाती है। बिहार लंबे समय से ऐसी मांग कर रहा है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे अन्य कर्जग्रस्त राज्य भी ऐसी ही मदद मांगेंगे। १४ वें वित्त आयोग ने २०१५ में ही कुल केंद्रीय कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी ३२ प्रतिशत से बढ़ाकर ४२ प्रतिशत कर दी थी। वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इसके बाद विशेष दर्जे की दलील ही नहीं बचती। दूसरी ओर, नायडू का यह कहना सही है कि एक प्रधानमंत्री द्वारा संसद में किए गए वादे को पूरा किया जाना चाहिए।अब सरकार की परीक्षा की घड़ी है। इस घड़ी में लिए गये निर्णय नजीर बनेंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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