
सीएफसी गैसों के उत्सर्जन से ओजोन परत को हो रही क्षति की ही तरह यह रसायन भी औद्योगीकरण की उपज है। असल में यह कहना सही होगा कि अपने खेतों में छिड़काव के लिए इस रसायन का इस्तेमाल करने वाले किसानों की इसकी आदत पड़ चुकी है। किसान इसका इस्तेमाल खरपतवार-नाशक के तौर पर करते हैं। खेतों में उगने वाले खरपतवार को नष्ट करने के लिए किसान फसल की बुआई के पहले ही खेतों में इस रसायन का छिड़काव कर देते हैं। अब फसलों का जीन संवद्र्धन (जीएम) होने से इस रसायन के इस्तेमाल की गुंजाइश भी बढ़ गई है। जीएम फसलों को इस तरह से विकसित किया गया है कि इस रसायन का उन पर कोई असर नहीं पड़ता है, लिहाजा किसान अब बिना किसी चिंता के इसका खुलकर इस्तेमाल करने लगे हैं।
अमेरिका में कार्यरत पत्रकार कैरी गिलेम ने अपनी पुस्तक 'व्हाइट वाश: द स्टोरी ऑफ ए वीड किलर, कैंसर ऐंड द करप्शन ऑफ साइंस' में लिखा है कि विज्ञान ने इस रसायन को लेकर अपना नजरिया बार-बार बदला है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अंतरराष्ट्रीय कैंसर शोध एजेंसी की तरफ से 2015 में जारी एक रिपोर्ट, जिसमें जानवरों पर किए गए अध्ययन के आधार पर इस रसायन से कैंसर पैदा होने की बात कही गई है। ग्लाइफोसेट का का लाइसेंस 2016 में खत्म हो चुका है। इसके बावजूद पुराना उत्पादन भारत जैसे विकासशील देशों में जी एम् फसलों के साथ उपयोग हो रहा है। चिकित्सा परामर्शदाता, खास तौर पर कैंसर विशेषज्ञ और सिविल सोसाइटी तो पूरी तरह इसके खिलाफ है।
खेती के पुरातन तौर तरीकों से इस हलाहल को आंशिक रूप से ही शिकस्त दी जा सकती है, लेकिन ताकतवर के हाथों में बाज़ार और विज्ञान की कमान होने से अब तक बहुत लोगों को जान गंवानी पडी है। भोपाल गैस त्रासदी इसका उदहारण है। कीड़े, मकौड़े , तितली, मधु मक्खी सबकी इस जैव चक्र में एक भूमिका है, क्या कोई इससे इंकार कर सकता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।