
जनगणना २०११ के अनुसार, कुल महिला कामगारों में से ५५ प्रतिशत कृषि श्रमिक और २४ प्रतिशत खेतिहर थीं, जबकि जोत क्षेत्रों में मात्र १२.८ प्रतिशत का स्वामित्व लैंगिक असमानता को प्रतिबिंबित करता है। विश्व खाद्य एवं कृषि (एफएओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘पहाड़ी इलाकों में लगभग एक एकड़ के खेत में हर साल एक बैल १०६४ घंटे, पुरुष खेतिहर १२१२ घंटे और एक महिला खेतिहर ३४८५ घंटे काम करते हैं।’ बावजूद इसके, महिलाओं को किसान नहीं माना जाता?
देश में में कृषिक्षेत्र में कुल श्रम की साठ से अस्सी प्रतिशत हिस्सेदारी ग्रामीण महिलाओं की है। वैश्विक रूप से अनुभवसिद्ध साक्ष्य है कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और स्थानीय कृषि जैव विविधता बनाए रखने में महिलाओं की निर्णायक भूमिका है। एकीकृत प्रबंधन और दैनिक घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति में विविध प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का श्रेय भी ग्रामीण महिलाओं को जाता है और यह स्थिति भारत की ही नहीं बल्कि विश्व भर की है। संपूर्ण विश्व में, कृषि व्यवस्था के प्रबंधन में महिलाओं का योगदान पचास प्रतिशत से ज्यादा है। खाद्य एवं कृषि संगठन के आंकड़ों के मुताबिक कृषिक्षेत्र में कुल श्रम में ग्रामीण महिलाओं का योगदान ४३ प्रतिशत है | भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और डीआरडब्ल्यूए की ओर से नौ राज्यों में किए गए एक शोध से पता चलता है कि प्रमुख फसलों की पैदावार में महिलाओं की भागीदारी पचहत्तर प्रतिशत तक रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आंकड़ों के अनुसार तेईस राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में ग्रामीण महिलाओं के कुल श्रम की हिस्सेदारी पचास प्रतिशत है। छत्तीसगढ़, म.प्र. और बिहार में यह भागीदारी सत्तर प्रतिशत है।
कृषिक्षेत्र में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए केंद्र ने सभी चालू योजनाओं, कार्यक्रमों तथा विकास कार्यकलापों में महिला लाभार्थियों की खातिर बजट आबंटन का कम से कम तीस प्रतिशत अलग से रखा है। आर्थिक समीक्षा २०१७ -१८ में भी यह स्वीकार किया गया है कि कृषि में उत्पादकता बढ़ाने के लिए महिलाओं के कृषि मूल्य कड़ी के- कृषि उत्पादन, फसल पूर्व, कटाई के बाद प्रसंस्करण, विपणन- सभी स्तरों पर महिला विशिष्ट हस्तक्षेप अनिवार्य है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।