सरकार की आँखों में धनकुबेरों की धूल | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश के बैंकिंग क्षेत्र की कमजोरी एक बार फिर उजागर हो गई,इस बार भी एक धन कुबेर सरकार की आँख में धूल झोंकने में कामयाब हो गया। सच तो यह है कि देश के बैंकों, खासतौर पर सरकारी बैंकों में जोखिम प्रबंधन की समुचित व्यवस्था नहीं है। यह समस्या केवल पीएनबी तक सीमित नहीं है, सारे बैंकों में यही आलम है। पंजाब नेशनल बैंक 2013 में भी हीरे का कारोबार करने वाली कंपनी विनसम से जुड़े ऐसे ही घोटाले में फंसा था। हीरे के कारोबार में बहुत बड़ी राशि विभिन्न देशों के बीच स्थानांतरित होती है। ऐसे में यह कारोबार स्वाभाविक तौर पर धोखाधड़ी और धनशोधन के लिए जांच के दायरे में रहता है। यह चिंता की बात है कि कुछ बैंक इस जोखिम भरे कारोबार को लेकर जरूरी सतर्कता नहीं बरतते। उदाहरण के लिए इस मामले में पीएनबी के साझेदार बैंकों की विदेशी शाखाओं ने एलओयू जारी किए। ये एलओयू नियामकीय अनुशंसा के तहत मान्य माल भेजने के बाद 90 दिन की सीमा से ज्यादा के लिए जारी किए गए। उन कई बैंकों ने भी गलती की है जिन्होंने बिना पीएनबी के साथ उचित जांच परख किए हजारों करोड़ रुपये की राशि जारी कर दी। इस राशि की गारंटी पीएनबी को देनी थी।

इस मामले में आये तथ्य कहते हैं कि केवल दो कर्मचारी बैंक के भीतरी स्विफ्ट सिस्टम और अनाधिकारिक पत्रों का इस्तेमाल करते हुए जोखिम का पता लगाने वाली हर व्यवस्था को धता बताने में कामयाब रहे, प्रश्न यह है कि कैसे ? आखिर धोखाधड़ी पर आधारित यह व्यवस्था इतने लंबे समय तक कामयाब कैसे होती रही? यह सिलसिला पूरे सात साल तक चलता रहा। अगर किसी व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करना इतना आसान हो या ऐसी अनदेखी संभव हो तो क्या यह स्वीकार्य होना चाहिए था? बैंकों के बीच ऐसा सहज तालमेल यह भी बताता है कि सुधार रहित और व्यापक तौर पर राष्ट्रीयकृत बैंकों में किस कदर जोखिम मौजूद है। निजी क्षेत्र हो या सरकारी लेकिन जमाकर्ताओं के पैसे का गंवाया जाना प्रबंधकीय जवाबदेही है। जिन लोगों की वजह से यह गड़बड़ी हुई है उन सभी को उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। 

पहले यह साबित हो चुका है कि निजी बैंक जवाबदेही के मोर्चे पर कमजोर रहे हैं लेकिन सरकारी क्षेत्र की स्थिति तो और खराब रही है। उनके संचालन के ढांचे को देखकर इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं होता है। पीएनबी मामला दिखाता है कि सरकारी बैंकिंग क्षेत्र किस कदर दिक्कतों और व्यवस्थागत नाकामी का शिकार है। उनमें निगरानी और प्रक्रियाओं का पालन भी सही ढंग से नहीं हो रहा है। यह सारा कुछ बहुत व्यापक स्तर तक पनप चुका है। भारतीय रिजर्व बैंक लंबे समय से बैंकिंग क्षेत्र को चेतावनी देता रहा है कि उच्च मूल्य के धोखाधड़ी भरे लेनदेन गंभीर चिंता का विषय बन चुके हैं। नियामक जटिल वित्तीय लेनदेन को लेकर नियम कड़े करता रहा है। उसने निगरानी बढ़ाई और बैंकों के बोर्डों को ऐसे खतरों को लेकर समय-समय पर अवगत कराता रहा है। जब तक उनमें प्रमुख हिस्सेदार यानी सरकार जवाबदेही नहीं डालती है तब तक समय-समय पर ऐसे मामले सामने आते ही रहेंगे। परिवर्तन जरूरी है, जिससे कोई मेहता माल्या या मोदी आगे से सरकार की आँख में धूल झोंक कर फरार न हो सके।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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