बजट के आंकड़े और देश का स्वास्थ्य | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। संसद का बजट सत्र हर साल की तरह आ गया है। भारत सरकार का बजट यहाँ आएगा। राज्य सरकारें भी अपना बजट लायेंगी और नगर निगम भी। रस्म अदायगी होगी और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर क्रन्तिकारी बात हर बजट में होगी। यह आम रिवायत हो गई है किबजट पेश होने के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य पर होने वाली बहस सिर्फ एक आंकड़े के इर्द-गिर्द सिमट जाती है। दुर्भाग्य से यह आंकड़ा कभी बदलता भी नहीं। यह अब देश की जीडीपी का करीब 1.2 प्रतिशत हो गया है और कई अन्य विकासशील देशों के मुकाबले भी काफी नीचे है। समझना होगा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपेक्षा से कम खर्च होने के नतीजे गंभीर होते हैं। सच तो यह है कि अपने इलाज पर होने वाले कुल खर्च का दो-तिहाई मरीज खुद चुकाता है, और अनुमान है कि इलाज पर खर्च की वजह से ही 6.3 करोड़ लोग हर साल गरीबी रेखा से नीचे जाने को मजबूर हो जाते हैं। 

2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में नीतिगत असमानता और देश में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच पर खास जोर दिया गया था। शायद इस बार समग्र स्वास्थ्य पैकेज की बात कहकर बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का दायरा बढ़ाने पर भी जोर दिया जाये। जब-जब स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च बढ़ाने की बात कही जाती है, तो आवंटित बजट के कम खर्च होने का आईना भी दिखाया जाता है। कैग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि प्रजनन व बाल स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत आवंटित रकम पूरी तरह खर्च नहीं हो पा रही है। राज्य वर्ष 2011-12 में इस मद के 7375 करोड़ रुपये खर्च नहीं कर पाए थे, जो 2015-16 में बढ़कर 9509 करोड़ हो गए।

बहुत खोजने पर पता लगा इस विरोधाभास की वजह क्या है? स्वास्थ्य क्षेत्र को आवंटित बजट भी आखिर खर्च क्यों नहीं हो पाता? एक अध्ययन का नतीजा है कि सबसे पहले तो कमजोर स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत बनाये । खासतौर से इसके दो अंगों मानव संसाधन (एचआर) और योजना व बजट प्रणाली में सुधार की सख्त दरकार है। प्लानिंग व बजट प्रक्रिया का केंद्रीकृत ढांचा स्वास्थ्य कर्मचारियों को बोझिल कागजी कामकाज में उलझा देता है, जबकि वे पहले से ही अत्यधिक बोझ से दबे हुए हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में भले ही इसके विकेंद्रीकरण और बजट-उन्मुख प्लानिंग की बजाय नतीजे देने पर जोर दिया गया है, पर हकीकत इससे अलग है। स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली की कमजोरी इसकी सेहत को और बिगाड़ रही है। फिलहाल, स्वास्थ्य संबंधी डाटा कई स्रोतों से हासिल किए जाते हैं और सैंपल सर्वे अक्सर संतोषजनक नहीं होते। प्रशासनिक क्षमताओं की सीमाएं डाटा की गुणवत्ता प्रभावित करती हैं। स्वाभाविक तौर पर प्रभावशाली योजना बनाने और उसके क्रियान्वयन पर इसका असर पड़ता है।

सरकार को प्लानिंग और बजट की तमाम प्रक्रियाओं को फिर से विकेंद्रीकृत करने की दिशा में भी बढ़ना चाहिए। यदि इसे एक समग्र सूचना प्रणाली से जोड़ दिया जाए, तो निश्चय ही फैसले की पारदर्शिता और वित्तीय व व्यवहारगत जवाबदेही को हम लंबे समय तक अक्षुण्ण बनाए रख  सकेंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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