मप्र को 13 साल में स्वर्ग बनाने की खुशफहमी | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। अजीब सा माहौल है, मध्यप्रदेश में। सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है, कि मध्यप्रदेश को 12 साल में  उसने स्वर्ग बना दिया। विधान सभा में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को लेकर हंगामे हो रहे है। खाद के लिए भटकते किसान दम तोड़ रहे हैं। भोपाल के सरकारी मेडिकल कालेज में पढने वाली छात्राएं उन शोहदों से परेशान है जो कालेज आते जाते समय उनके निजी अंगों को छूते है। राजधानी में गैंगरेप हो जाता है। पुलिस मुख्यालय में तैनात पुलिस का अत्तिरिक्त पुलिस अधीक्षक महिला सिपाही से अनुचित मांग के मामले में गिरफ्तार होता है। सचिवालय में काम कम ठकुरसुहाती में लगे अफसर सेवानिवृति के बाद भी कृपा से डटे हैं। इसे क्या कहें, सब देख रहे हैं, न जाने क्यों चुप हैं ?  और किसान पुत्र और बच्चियों के स्वंयभू मामा अपनी पीठ ठोंकते हैं कि 12 साल में उन्होंने मध्यप्रदेश को स्वर्ग बना दिया।

प्रतिपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं, अवमानना के मुकदमे भुगतते हैं, सजा पाते हैं। एक सामान्य सी बात है कहीं आग तो होगी, जिसका धुआं दिख रहा है। यह भी सही है कि सौजन्य की पट्टी प्रदेश के प्रतिपक्ष के कुछ नेताओं की आँख भी नहीं खुलने दे रही है। एनसीआरबी अर्थात राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े ही चुल्लू भर पानी तलाश कर .... की कहावत कह रहे है। फिर भी खम ठोंक रहे है कि हमने बीमारू राज्य को स्वर्ग बना दिया। हकीकत यह है कि किसान, जवान, बेटे बेटी सब परेशान है। व्यापम के मगर मच्छ ने प्रदेश की प्रतिभा के भाल पर कालिख पोत दी। स्वर्ग बनाने के दावे करने वालों को यह भी देखना चाहिए,  व्यापमं घोटाले के समय चिकित्सा शिक्षा विभाग में सरकारी खजाने से तनख्वाह पाने वाला कौन सा वजीर निगहबानी को मुकर्रर था ? क्लीनचिट की आड़ में बचने से निगहबानी न करने हिमाकत छिप नहीं सकती।

एनसीआरबी के आंकड़े किसानों की आत्म हत्या और महिलाओं के साथ हो रहे अपराध का जो दृश्य खीच रहे है, वह सबसे अलग और संस्कारवान राजनीतिक दल कहने वाली सरकार के नहीं हैं। फिर भी भाजपा के एक कप्तान जिनकी कप्तानी अब कहीं और है प्रमाण पत्र दे गये है की 12 साल से काबिज आदमी का कुर्सी पर फिर से अधिकार हो जाता है। यह सब भ्रम है, प्रदेश को इससे निकलना होगा। 12 साल में भारी संख्या में किसानों ने आत्म हत्या की है। 30 दिन बाद समाप्त हो रहे इस साल में में भी यह आंकड़ा 100 को छू रहा है।

एक कहावत है, जनाब ! 12 साल में तो घूरे के दिन बदलते हैं। फिर ये तो मध्यप्रदेश है। खुशफहमी बुरी होती है, तब और भी जब आसपास हरित चित्र दिखानेवाले ही शेष बचे। ऐसे में बचना मुश्किल होता है, थोडा इतिहास में झांके उदाहरण के लिए ज्यादा दूर नही जाना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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