
सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को देखते हुए क्या सरकार को राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.2 प्रतिशत के बराबर रखने के पुराने लक्ष्य पर कायम रहना चाहिए? या इसे कुछ हद तक शिथिल? कुकरना चहिये ? विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को इस स्तर पर टिके रहना चाहिए क्योंकि 3.2 प्रतिशत से अधिक का राजकोषीय घाटा मुद्रास्फीति बढ़ाने वाला होगा और सरकार की विश्वसनीयता को भी नुकसान पहुंचाएगा। वहीं कुछ का कहना है कि अर्थव्यवस्था में आई मंदी और राजकोषीय प्रोत्साहन की आवश्यकता को देखते हुए सरकार को अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त नकदी डालनी चाहिए।
राजकोषीय घाटे की जो मौजूदा व्याख्या है, वह वर्तमान सन्दर्भों में बहुत अर्थ नहीं रखती। इसमें केवल सरकार की उधारी संबंधी जरूरतें शामिल हैं। केंद्र सरकार के उद्यमों द्वारा अपने निवेश की पूर्ति की खातिर लिए जाने वाले ऋण का क्या? राज्य सरकारों द्वारा अपने राजकोषीय घाटे को पूरा करने के क्रम में लिए जाने वाले ऋण का क्या? अपना घाटा पूरा करने के लिए कुछ सरकारी कंपनियों द्वारा लिए गए भारी भरकम ऋण का क्या? सरकारी बिजली वितरण कंपनियां इसका उदाहरण हैं? अगर किसी को राजकोषीय घाटे के वाकई वृहद आर्थिक प्रभाव की चिंता है तो उसे इन सारी चीजों पर गौर करना चाहिए।
सारे आकलनों के बाद देश का जीडीपी घाटा करीब 10 प्रतिशत निकलता है। तब वे विशेषज्ञ जो मानते हैं कि सरकार को राजकोषीय घाटे के 3.2 प्रतिशत के लक्ष्य पर टिके रहना चाहिए, वे कहेंगे कि जीडीपी के 10 प्रतिशत के बराबर का राजकोषीय घाटा ठीक है लेकिन 11 प्रतिशत के बराबर घाटा गलत है? घाटा हमेशा बुरा होता है। और जब सार्वजनिक धन तो आवंटन पर निर्भर करता है। साथ ही इस बात पर भी कि उसे कैसे खर्च किया जाता है? सरकारी तथा अन्य संस्थान उसका क्या उपयोग करते हैं और देश की वृहद आर्थिक स्थिति कैसी है?
देश की मौजूदा वृहद आर्थिक स्थिति में हम आसानी से घाटे में १ प्रतिशत की वृद्धि सहन कर सकते हैं, परंतु केंद्र की मौजूदा सरकार अपने व्यय का समझदारी भरा प्रबंधन कैसे सुनिश्चित करेगी? वह तो एक के बाद एक सार्वजनिक हस्तक्षेपों की तो घोषणा कर रही है लेकिन क्या उनकी उचित निगरानी और मूल्यांकन हो रहा है? सवाल यह है कि किस चीज की निगरानी? तो इसका जवाब है इनपुट, गतिविधियों, उत्पादन और नतीजों की निगरानी। साथ ही इनके बीच के अंतर्संबंधों की मजबूती की निगरानी।
जहां तक मूल्यांकन की बात है एक ऐसी नीति विकसित करना बेहतर होगा जहां नीति निर्माता नियमित रूप से सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के प्रभाव का आकलन करें। ऐसा इसलिए न हो कि उनको किसी आवश्यकता का अनुपालन करना है बल्कि ऐसा इसलिए होना चाहिए क्योंकि उनको हकीकत में किए गए काम के प्रभाव के आकलन की आवश्यकता होती है।
सरकार को नीति निर्धारकों को पता होना चाहिए काम किस तरह हो रहा है, किसके लिए हो रहा है और दी गई योजना या काम का असर क्या है और इसकी लागत क्या है? अगर यह होगा तो वे सही निष्कर्ष आयेंगे और भविष्य के कार्यक्रमों और योजनाओं को बेहतर बनाया जा सकेगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।