
पहले बोर्ड ने भी फैसले के रिविजन पर विचार किया था, लेकिन यह ख्याल छोड़ दिया गया है। बोर्ड को इस मामले में महिलाओं से ही बड़ा डर था और है और उसका डर निराधार भी नहीं है। मुस्लिम महिलाओं के बड़े तबके में चौतरफा बदलाव की चाहत बढ़ी है। वह अपने धार्मिक मामलों में सरकार की दखल देने के बोर्ड के आरोपों से इत्तेफाक नहीं रख रही हैं। महिलाएं तो अब बोर्ड की महिला शाखा से भी वह सहमत नहीं जो इन कवायदों में सरकार और सत्ताधारी पार्टी का हस्तक्षेप मानती है। वह भी तब जब सरकार ने अदालती फैसले को काफी बताते हुए तलाक पर कानून बनाने से इनकार किया है। दरअसल मुस्लिम महिलाएं धार्मिक नियमों की अपनी बेहतरी के पक्ष में लामबंद होना चाहती हैं।
यह दृष्टि मजहब को महिलाओं के लिए बराबरी का समाज बनाने में भागीदार के रूप में देखती है। इसलिए ही बहुविवाह-जो तब की परिस्थितियों में वाजिब था-को अब के हालात में अपने हक में परेशानी मानती हैं। वह हलाला निकाह से भी आजाद होना चाहती हैं। नई मुस्लिम महिलाएं अपने प्रति होने वाली नाइंसाफी से बचाव के लिए अदालती तलाक के पक्ष में लामबंद होती दिखती हैं। बोर्ड का यह आकलन सकारात्मक है कि इसके लिए नये दौर की जरूरी जागरूकता लानी होगी। तालीम के जरिये समुदाय की मानसिकता बदलनी होगी। भोपाल की जमीं पर हुए बोर्ड के फेसले से जागृति आती दिखती है और वर्तमान संवैधानिक ढाँचे से सीधी टकराहट से बचने की कोशिश भी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।