जी, हम रावण के पुतले बनाने में व्यस्त हैं !

राकेश दुबे@प्रतिदिन। आधे से ज्यादा भारत रावण के पुतले बनाने में व्यस्त है। रावण के पुतले की ऊंचाई को विशेषता मानते हुए कुछ सन्गठन तो इस बात की बकायदा घोषणा करने में लगे हैं, इस साल उन्होंने पिछले साल से ऊँचा रावण का पुतला बनवाया है। इस ऊंचाई को चंदे के साथ जोड कर इस साल अधिक चंदा देने का आग्रह 30 सितम्बर अर्थात दशहरे तक दबाव में बदलता महसूस होता दिख रहा है। रावण का पुतला बनाने या बनवाने की होड़ में हम सब यह भूलते जा रहे हैं कि “रामलला” का मन्दिर बनाने की कसमें खाने और वादा करने वालों के राज में “रामलला” तिरपाल में ही बैठे है। चूँकि रावण के पुतले के साथ कोई राजनीति नहीं जुडी है, इस कारण जिसका जितना बड़ा बजट होता है उतना बड़ा पुतला खड़ा करके आग लगा देता हैं। 

रावण के पुतले बनाने का व्यवसाय अब पुश्तैनी होने लगा है। भोपाल शहर के कई मुख्य मार्ग पर बैनर लगा कर इस बात की घोषणा की जा रही है कि “फलां रावण मेकर, 25 साल का अनुभव”। ये बेचारे रावण के पुतले बहाने से कुछ कमा लेते हैं। पुतले ही तो बनाते है, बेचारे। रावण बनाना वैसे किसी के बस की बात नहीं है और न कुव्वत ही है। शास्त्रों में लिखे और वाम पन्थ के पैरोकारों के हिसाब से रावण विद्वान और गुणी था। कई मामलों में अपने समकालीनों से श्रेष्ठ भी। लगता है तत्समय भी मीडिया मेनेजमेंट या मीडिया बाइंग जैसी विधा आ गई होगी। इस कारण उसके अवगुण ज्यादा प्रचार पा गये। आज भी मीडिया को जब किसी घटना में कुविशेषण जोड़ने होते हैं तो रावण ही प्रतिमान होता है। 

एक अख़बार में पिछले दिनों एक शीर्षक था “नवरात्रि के दौरान हिन्दू विश्वविद्यालय में रावण लीला” वैसे भी विशेषणों के मामले में इन मीडिया का सोच त्रेता युग का ही है। वैसे नाम रख लेने से “कन्हैया” मुरली बजाने में निष्णात नही होते न कोई “राम” रावण मार पाता है। नरों में श्रेष्ठ होने का विशेषण भी अब फीका होता जा रहा है। हाँ !गरल पान करने वाले शंकर जरुर मौजूद है, जो तिरपाल में बैठे रामलला के उद्धार की बात उठाते रहते हैं।

किसी मित्र ने कहा कि क्या दशहरा मनाना बंद कर दें। मेरा उत्तर उन सहित सभी लोगों से है, सदगुण धारण कीजिये। कहीं से भी मिले। राम का चरित्र गुणों से भरपूर है, ईमानदारी से कितने लोग उसे आत्मसात करते हैं। समाज के नेतृत्व करने वाले तो अब अपने पूर्व के नेतृत्व कर्ता के अवगुणों और भूलों से प्रतिस्पर्धा करते नजर आते हैं। अपनी चूक को पिछले की चूक के मुकाबले छोटी बताने के तर्क देते हैं। यह प्रवृत्ति न तो “राम” की है और न “रावण” की। रावण के पुतले और राम की प्रतिमा से ज्यादा महत्वपूर्ण गुण और प्रवृत्ति है। इसका विकास कैसे हो, दशहरे पर यही चिंतन हो।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !