
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में पर्व-त्योहारों का एक-दूसरे से टकराना कोई नई बात नहीं है। आम आबादी एक-दूसरे की परंपराओं और रीति-रिवाजों का सम्मान करते हुए जीने की आदी है। इसमें आने वाली छोटी-मोटी अड़चनें जिला प्रशासन के स्तर पर ही हल होती रही हैं। अमूमन तो जिला प्रशासन को भी हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं होती लेकिन किसी तरह के तनाव की आशंका होने पर स्थानीय पुलिस दोनों समुदायों के प्रमुख लोगों के बीच बैठक और बातचीत करवा कर ऐसा रास्ता निकाल लेती है जो सबको मंजूर होता है। यह मानने का कोई कारण नहीं कि मोहर्रम के जुलूस और मूर्ति विसर्जन के रूट तथा समय को लेकर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती थी। इसका प्रयास किए बगैर सीधे सरकार के स्तर पर प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगा दी थी।
इससे सरकार ने इस धारणा को जड़ जमाने का मौका दिया कि ममता बनर्जी मुस्लिम वोट बैंक के तुष्टीकरण का खेल खेल रही हैं। इससे एक धार्मिक और सांस्कृतिक मामले में बेवजह गंदी राजनीति शुरू हो गई। अच्छा हुआ कि हाईकोर्ट के सख्त रुख से यह मामला और बिगड़ने से बच गया। उम्मीद करें कि हमारी सरकारें आगे से ऐसे मामलों में व्यर्थ की सक्रियता नहीं दिखाएंगी। ममता सरकार के साथ यह उन सरकारों के लिए भी सबक है, जो अति उत्साह में आकर ऐसे निर्णय लेती है, जिससे किसी एक वर्ग का तुष्टिकरण होता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।