बाबू भाई की जीत और उसके संदेश

राकेश दुबे@प्रतिदिन। यूँ तो बाबू भाई उर्फ़ अहमद पटेल 1993 से ही राज्यसभा के सदस्य चुने जाते रहे हैं। वे छठी लोकसभा बल्कि सातवीं और आठवीं लोकसभा के भी सदस्य भी रह चुके हैं। पर इस बार की इस जीत का अर्थ और अंदाज़ अलग है। कांग्रेस में अलग और कांग्रेस के बाहर अलग, परन्तु भाजपा के लिए एक ही संदेश है, कहीं कसर बाकी है। यह कसर 2019 में नतीजे बदल सकती है ?  इतिहास बन गया है उनका गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान होना। जब इंदिरा गांधी को 1977  के चुनावों में करारी शिकस्त मिली थी तो पटेल ने ही सुरेंद्रनगर के कांग्रेस नेता सनत मेहता के साथ मिलकर उन्हें भरूच में जनसभा के लिए आमंत्रित किया था। इंदिरा उनके न्योते को स्वीकार करने में संकोच दिखा रही थीं लेकिन ये दोनों अपनी बात पर अड़े रहे। भरूच की उन सभाओं ने इंदिरा को निराशा से बाहर निकालने की राह तैयार की। छठी लोकसभा ने बाबू भाई को एक संभावनाशील नेता के तौर पर स्थापित किया था लेकिन सातवीं लोकसभा से वह अपने असल रूप में नजर आने लगे।

राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी में पटेल का कद तेजी से बढऩे लगा। उन्हें पहले कांग्रेस का संयुक्त सचिव बनाया गया, फिर संसदीय सचिव नियुक्त किया गया और बाद में पार्टी का महासचिव भी बना दिया गया। हालांकि पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री रहते समय पटेल को बुरे दिन भी देखने पड़े। माना जाता है कि पटेल की सोनिया तक सीधी पहुंच है।

राज्यसभा का यह चुनाव व्यक्तिगत बन चुका था लिहाजा जीतना भी जरूरी था। इससे अमित शाह को एक साफ संदेश भी भेजा जाना था और वह यह था कि पटेल से न उलझें। 2019 के चुनाव में अमित शाह अहमदाबाद से मैदान में उतर सकते हैं। कांग्रेस को पटेल के गृह राज्य से कितनी सीटें मिलेंगी? इसकी कवायद शुरू हो गई है। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह राज्य सभा चुनाव एक सबक है। तो अमित शाह के कथित राजनीतिक कौशल के चमत्कार का खुलासा भी। भारतीय राजनीति में इस चुनाव में बाबू भाई के जीतने और कांग्रेस से बागियों के निष्कासन के अनेक अर्थ है, कांग्रेस का हौसला बढने के साथ, भाजपा को भी अपने भविष्य की चिंता लग गई है। जो स्वाभाविक है।
 श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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