
आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था, विशेषकर पदोन्नति में आरक्षण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और कई प्रदेशों के उच्च न्यायालय समीक्षा कर स्पष्ट मत दे चुके हैं. पूरे देश में आरक्षण को लेकर बहस चल रही है और आंदोलन चल रहे हैं. वर्तमान व्यवस्था से वास्तविक हक़दार, चाहे वे किसी भी वर्ग के हों अवसरों से वंचित हो रहे हैं। एक ओर प्रधानमंत्रीजी जातिगत भेदभाव समाप्त करने पूरे देश का आह्वान कर रहे हैं, वहीं मप्र शासन मान न्यायालय का निर्णय लागू कर अन्याय समाप्त करने की बजाय खुलकर वर्ग विशेष के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय गया और वहाँ भी निर्णय के शीघ्र पहल की बजाय सिर्फ़ विलम्ब की नीति अपनाई जा रही है।
हम और पूरा प्रदेश दुविधा में है, किसकी सुने मान प्रधानमंत्रीजी की जो "जातिवाद की कोई जगह नहीं " का संदेश देते हैं या मान मुख्यमंत्रीजी की जो खुले मंच से आरक्षण की वकालत मान न्यायालयों की व्यवस्था को नकारते हुए करते हैं। राष्ट्रीय अध्यक्षजी से भी निवेदन है कि यदि वास्तव में जातिवाद के नासूर को समाप्त करना है तो भोज आयोजन के साथ दलित/ अदलित जैसे विशेषण न रखें, इसके स्थान पर 'ग़रीब' शब्द जुड़े, जो जाति से इतर सार्वभौमिक समस्या है। जिसे दूर करने की हर कवायद अब तक नाकामयाब होती रही है। यदि बीजेपी जातिवाद की ही राजनीति करना चाहती है तो सपाक्स संस्था की माँग है कि सामान्य पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग को *राजनीतिक अछूत* का दर्जा दिया जाए। जिससे 70 वर्षों से अपनी योग्यता के बावजूद वंचित इस वर्ग का भी उद्धार हो सके।