हर रोज 2959 बच्चे मर जाते हैं देश में, मामा का मप्र तो अफ्रीका से भी बद्तर

नई दिल्ली। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम स्टेटिकल रिपोर्ट 2015 ने भारत सरकार की संवेदनशील चिकित्सा नीति पर ही सवाल उठा दिया है। जिस देश में विकास योजनाओं और जागरुकता अभियानों पर सरकारी खजाना दिल खोलकर लुटाया जा रहा है, वहां की चिकित्सा सुविधाएं लगातार घटिया और जानलेवा होती जा रहीं हैं। भारत में हर रोज 2959 बच्चे मर जाते हैं। इनकी उम्र 5 साल से कम होती है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने खुद को 'मामा' घोषित कर रखा है परंतु मप्र की हालत अफीका से भी खराब है। यहां बच्चों की मौत का ग्राफ देश भर में टॉप पर है। 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में हर मिनट दो मासूम बच्चों की मौत होती है।

सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम स्टेटिकल रिपोर्ट 2015 में चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। बताया गया है कि उस साल भारत में पांच साल से कम उम्र के 10 लाख 8 हजार बच्चों की असमय मौत हुई थी। यानी 2959 मौतें हर दिन। इस हिसाब से हर मिनट दो बच्चों की जान जा रही है, जिसे स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार कर बचाया जा सकता है।

2015 में जन्मे 10 लाख बच्चे 2017 का सूरज तक नहीं देख पाए 
इंडिया अंडर-फाइव मॉर्टलिटी रेट (यू5एमआर) के तहत पांच से साल के कम उम्र के बच्चों पर रिपोर्ट तैयार की गई है। इसमें बताया गया है कि 2015 में जन्में हर 1000 बच्चों में से 43 की मौत हो गई।
2015-16 में जहां देश की विकासदर 7.6 फीसदी रही, वहीं हर हजार बच्चों पर 43 की मौत का भारत का आंकड़ा ब्रिक्स देशों में सबसे खराब रहा। मध्यप्रदेश और असम जैसे प्रदेशों की स्थिति तो अफ्रीकी देश घाना से भी बदतर रही।
वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडों का हवाला देते हुए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2016-17 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया है कि इन मौतों का सबसे बड़ा कारण (53 फीसदी) नवजात शिशु संबंधी रहे।
इसके बाद निमोनिया (15 फीसदी), डायरिया (12 फीसदी), मांसपेशियां (3 फीसदी) और चोट लगाना (3 फीसदी) कारण रहे।
सरकार मानती है कि इनमें से 90 फीसदी बच्चों की मौत को बचाया जा सकता है, लेकिन अस्पतालों में सुविधाएं नहीं होने कारण ऐसा न हो सका।
यूनिसेफ ने भी माना है कि भारत आर्थिक रूप से विकास कर रहा है, लेकिन बच्चों की मौत रोकने में नाकाम रहा है।
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