
एयर इण्डिया को बचाने के लिए सरकार ने बैंकों को यह सुझाव दिया गया कि वे अपने कुछ ऋण को इक्विटी में बदल लें। चूंकि वे किंगफिशर के साथ एक विवादास्पद सौदे में अपने हाथ पहले ही जला चुके थे इसलिए उन्होंने समझदारीपूर्वक इस विचार को खारिज कर दिया। उसके बाद सरकार ने समय-समय पर दिए जाने वाले राहत पैकेज की शुरुआत की और 30,000 करोड़ रुपये दिए। देखा जय तो अन्य एयर लाइंस का संयुक्त कर्ज एयर इंडिया की तुलना में बमुश्किल आधा है। बचाव की तीन साल की कोशिशों के बाद इस प्रश्न का जवाब अब साफ है और अब फंसे हुए पैसे की खातिर और निवेश करना बेतुका नजर आ रहा है।
निजीकरण अचानक स्वीकार्य नजर आने लगा है। परंतु एक दिवालिया और परिचालन के मामले में अव्यावहारिक हो चुकी विमानन कंपनी को कौन खरीदेगा? ऐसे में नागरिक उड्डयन मंत्री का यह मानना उचित ही है कि आखिर में हो सकता है कोई खरीदार न मिले। हो सकता है निजीकरण के लिए काफी देर हो चुकी हो। अगर आप एयर इंडिया को बतौर सरकारी विमानन कंपनी नहीं चलाना चाहते और उसका निजीकरण भी नहीं करना चाहते तो इकलौता विकल्प है इसे बंद करना।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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