
2016-17 में दालों की रिकॉर्ड पैदावार के पीछे एक वजह तो यह रही कि दालों की ऊंची कीमतों को देखते हुए किसान अधिक रकबे में इसकी खेती के लिए प्रोत्साहित हुए थे। इसके अलावा खरीफ और रबी दोनों सत्रों में अच्छे मौसम का साथ मिलने से भी पैदावार बढ़ी। लेकिन अब दालों की कीमतों में अच्छी-खासी गिरावट होने से बदले हुए हालात में किसान शायद ही पिछले साल की तरह दालों की खेती के लिए प्रेरित हों। इस साल तो अधिकतर दालों के भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे आ गए हैं। इसके अलावा दालों का बफर स्टॉक जमा करने के लिए सरकार ने जिस तरह से गलत समय पर बाजार में दखल दिया था, उसने भी दाल उत्पादकों के अलावा उपभोक्ताओं के लिए हालात खराब कर दिए हैं। सरकारी एजेंसियों ने दालों के ऊंचे भावों के बीच ही दालों की खरीद शुरू कर दी थी जिससे आम उपभोक्ताओं की थाली में दाल का पहुंच पाना मुश्किल हो गया।
दालों का उत्पादन बढ़ाना केवल मुश्किल है, असंभव नहीं। अगर अनुकूल रणनीतियां बनाई जाएं तो तकनीक के इस्तेमाल से दालों का उत्पादन अपेक्षित स्तर तक बढ़ाया जा सकता है। इसका सबसे अच्छा और सरल तरीका यह है कि सर्वाधिक और न्यूनतम उपज वाले इलाकों के अंतर को पाट दिया जाए। अभी तो दालों के उच्च और निम्न उत्पादन स्तर में करीब 34 फीसदी उपज का फर्क है। अगर दालों के प्रति हेक्टेयर उत्पादन स्तर को बढ़ाकर म्यांमार में 700 किलोग्राम से 1300 किलोग्राम और कनाडा में 2200 किलोग्राम तक किया जा सकता है तो भारत भी उच्च स्तर को हासिल कर सकता है। इससे भारत न केवल इस बुनियादी खाद्य पदार्थ के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो जाएगा बल्कि निर्यातक भी बन जाएगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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