राकेश दुबे@प्रतिदिन। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा कर्णन मामले में दिए गए आदेश का एक महत्वपूर्ण अंश देश के मीडिया को जस्टिस कर्णन के बयानों को न छापने का निर्देश देना भी है। यह भी एक गंभीर स्थिति की ओर इशारा करता है। उच्चतम न्यायालय ने शायद महसूस किया कि किसी के अवांछित बयानों को मीडिया में जगह मिलने से जनमानस में भ्रामक स्थिति पैदा होती है और सांविधानिक संस्थाओं की गरिमा व मर्यादा का हनन होता है। माननीय उच्चतम न्यायालय की यह मंशा भी रही होगी कि जस्टिस कर्णन के बयानों से लगातार न्यायपालिका की गरिमा का हनन होता रहा है। पर क्या यह निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ मीडिया की स्वतंत्रता की हदबंदी नहीं करता है। और अगर यह सही है, तो क्या इस तरह के अन्य मामलों में उच्च या उच्चतम न्यायालय यही संवेदनशीलता दिखाएगा? उच्चतम न्यायालय ने जस्टिस कर्णन के किसी बयान को पूरे देश के मीडिया में कहीं भी नहीं छापने का निर्देश दिया। यह इस देश की न्यायपालिका के लिए एक अनोखा निर्णय है ।
इस पूरे प्रकरण से तीन-चार महत्वपूर्ण और गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं। पहला, माननीय जजों की नियुक्ति-प्रक्रिया से जुड़ी संविधान की धारा-217 के अनुसार, 15 साल तक वकालत का अनुभव रखने वाला कोई भी व्यक्ति मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के संबंध में समय-समय पर विवाद और प्रश्न उभरते रहे हैं। हाल ही में उच्चतम न्यायालय का कॉलेजियम बनाम राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियों के आयोग का मुद्दा जोर से उभरा। नियुक्तियां चाहे जिस प्रकार हों, इसमें गहन छानबीन और पारदर्शिता लाने की आवश्यकता है, ताकि आने वाले समय में न्यायपालिका के लिए ऐसी दुखद स्थिति फिर पैदा न हो।
दूसरे, एक न्यायाधीश के रूप में अधिकार-संपन्न और हर तरह से सुरक्षित व संरक्षित होने के बावजूद जस्टिस कर्णन द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति निवारण अधिनियम की सहायता लेना एक अलग प्रश्न खड़ा करता है। यह तो सर्वाधिकार संपन्न उच्च न्यायपालिका थी, जिसने अपने को इसकी जद से बचा लिया, वरना आम लोगों का क्या होता है ? किसी से छिपा नहीं है।
तीसरा प्रश्न अवांछनीय आचरण करने वाले न्यायाधीशों के विरुद्ध अनुशासन-प्रक्रिया से जुड़ा है। संविधान निर्माताओं द्वारा इस तरह के उच्च-पदासीन न्यायाधीशों के द्वारा ऐसे अवांछनीय आचरण की कल्पना भी शायद नहीं की गई होगी। ऐसे मामलों में एकमात्र सांविधानिक व्यवस्था भारतीय संसद द्वारा महाभियोग की कार्रवाई के तहत किसी न्यायाधीश को पद से हटाना है। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में इसका अभी तक उपयोग नहीं किया जा सका है। जरूरत इस बात की है कि महाभियोग के प्रावधान से इतर भी ऐसे आचरण पर अनुशासनिक कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, चूंकि जजों की नियुक्ति कॉलेजियम और राष्ट्रपति द्वारा होती है, तो जजों के खिलाफ अन्य प्रकार की अनुशासनिक कार्रवाई का अधिकार भी कॉलेजियम और राष्ट्रपति को दिया जाना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए