यदि आपने दयानन्द सरस्वती को नहीं पढ़ा तो आपका हिंदुत्व अधूरा है

ललित गर्ग। आजकल देश में हिंदुत्व की बयार बह रही है। सोशल मीडिया पर हर कोई हिंदुत्व का रक्षक बना हुआ है। गौहत्या और धर्मांतरण का मुखर विरोध हो रहा है। कभी कभी यह विरोध आपत्तियोग्य हिंसा में बदल जाता है। यह सबकुछ इसलिए क्योंकि हिंदुत्व का झंडा उठाने वालों ने स्वामी दयानंद सरस्वती को नहीं पढ़ा। यदि वो पढ़ लें तो समझ जाएंगे कि 1857 जैसी परिस्थितियों में क्रांति की शुरूआत कैसे की जाती है। क्यों मंदिर पर चढ़े प्रसाद को चींटियां खा जातीं हैं और भगवान अपने प्रसाद की रक्षा भी नहीं कर पाते। 12 फरवरी को आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती है। उनकी फोटो पर माला मत चढ़ाइए। यदि हिंदुत्व से लगाव हो तो इस लेख को पढ़िए: 

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी सन् 1824 में काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में टंकरा नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम कृष्णजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत ऐशो आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।  

महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा की परवाह किये बिना हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में गिरगांव मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है, संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। मैं मानता हूँ कि गीता में कुछ भी गलत नहीं है। इसके अलावा गीता वेदों के खिलाफ नहीं है। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। स्वामीजी ने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा संन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले 1876 में ‘स्वराज्य’ का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। 

सत्यार्थ प्रकाश के लेखन में उन्होंने भक्ति-ज्ञान के अतिरिक्त समाज के नैतिक उत्थान एवं समाज-सुधार पर भी जोर दिया उन्होंने समाज की कपट वृत्ति, दंभ, क्रूरता, अनाचार, आडम्बर, एवं महिला अत्याचार की भत्र्सना करने में संकोच नहीं किया। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियों एवं ढकोसलों का विरोध किया और धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्थापित किया। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर से जुड़ी भ्रान्त धारणाओं को बदलने के लिये विवश किया। 

एक बार शिवरात्रि को उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए। अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और वे 1846 मे सत्य की खोज मे निकल पड़े। गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। 

गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत-मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।

महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। वे कलकत्ता में बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। केशवचन्द्र सेन ने स्वामीजी को यह सलाह दे डाली कि यदि आप संस्कृत छोड़ कर हिन्दी में बोलना आरम्भ करें, तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामीजी ने हिन्दी में उपदेश देना प्रारंभ किया, इससे विभिन्न प्रान्तों में उन्हें असंख्य अनुयायी मिलने लगे। 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। उन्होंने ईसाइयत और इस्लाम के विरूद्ध मोर्चा खोला, सनातनधर्मी हिंदुओं के खिलाफ संघर्ष किया। इस कारण स्वामीजी को तरह-तरह की परेशानियां झेलनी पड़ी, अपमान, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। संघर्ष उनके लिये अभिशाप नहीं, वरदान साबित हुआ। आंतरिक आवाज वही प्रकट कर सकता है जो दृढ़ मनोबली और आत्म-विजेता हो। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान। 

हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था। और अनेक समझदार लोग मन ही मन अनुभव करने लगे थे कि वास्तव में पौराणिक धर्म की पोंगापंथी में कोई सार नहीं है। इस तरह धर्म के वास्तविक स्वरूप से जन-जन को प्रेरित करके उन्होंने एक महान् क्रांति घटित की। उनकी इस धर्मक्रांति का सार था कि न तो धर्मग्रंथों में उलझे और न ही धर्म स्थानों में। उनके धर्म में न स्वर्ग का प्रलोभन था और न नरक का भय, बल्कि जीवन की सहजता और मानवीय आचार संहिता का ध्रुवीकरण था। 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने न केवल धर्मक्रांति की बल्कि परतंत्रता में जकड़े देश को आजादी दिलाने के लिये राष्ट्रक्रांति का बिगुल भी बजा दिया। इसके लिये उन्होंने हरिद्वार पहुँच कर वहां एक पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर उन्होंने पाँच ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे चलकर सन् 1857 की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पांच व्यक्ति थे नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुंवर सिंह। बातचीत काफी लम्बी चली और यहीं पर यह तय किया गया कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए और उसके बाद एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। 

सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामीजी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को प्रायः राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि लोग अब अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं और देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने को आतुर हो उठे हैं।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन किया। इन सबके साथ स्वामीजी लोगों में देशभक्ति की भावना भरने से भी कभी नहीं चूकते थे। प्रारम्भ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामीजी के समाज सुधार के कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने लगे और विरोध कम हुआ। उनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ने लगी। उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना होगा। उनकी जन्म जयन्ती मनाने की सार्थकता तभी है जब हम उनके बताये मार्ग पर चलते हुए गुणवत्ता एवं जीवनमूल्यों को जीवनशैली बनाये। 

प्रेषकः
(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25, आई0पी0 एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोन: 22727486 मोबाईल: 9811051133

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