राकेश दुबे@प्रतिदिन। शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी जादूगरी का अंत नहीं हो रहा है। कहने को सरकारें इस मद में भरी भरकम राशी का प्रावधन कर रही हैं परन्तु नतीजे बहुत ठीक नहीं दिखते हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने दावा किया कि शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों का खर्च मिलाकर देश के कुल जीडीपी का 4.5 प्रतिशत खर्च किया जा रहा है। यह दावा कुछ इस तरह किया गया था, जैसे शिक्षा पर खर्च अचानक बहुत बढ़ा दिया गया हो, और इससे भारत के शिक्षा क्षेत्र की तकदीर ही बदल जाने ही वाली हो। आज से आधी सदी पहले कोठारी कमिशन ने शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश की थी।
उसके बाद अनेक शिक्षा नीतियों और चुनाव घोषणापत्रों में इसका वादा किया गया, लेकिन आज तक यह लक्ष्य पूरा न हो सका। और तो और, जावड़ेकर खर्च का जो आंकड़ा दे रहे हैं, खर्च असल में उसके दो तिहाई से भी कम हो रहा है। वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो सीधे कहा जा सकता है कि शिक्षामंत्री गलतबयानी कर रहे हैं।
इन आंकड़ों के मुताबिक इस साल एजुकेशन पर कुल खर्च जीडीपी का 2.9 प्रतिशत ही हो पाया है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 2001 से लेकर 2013-14 तक लगातार 3.1 प्रतिशत के उच्च स्तर पर रहा। इसी तरह सर्वशिक्षा अभियान पर भी खर्च लगातार कम हो रहा है।
वर्ष 2015-16 में चौदहवें वित्त आयोग की सिफारिशें मानी गईं, जिसके तहत इस अभियान में राज्य सरकारों का हिस्सा 40 फीसदी तय हुआ। इससे पहले उनका योगदान 25 प्रतिशत होता था, लेकिन तब भी वे अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाती थीं। दरअसल शिक्षा पर खर्च का गणित बिगाड़ने का दोष केंद्र से ज्यादा राज्यों के सिर जाता है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार चौदहवें वित्त आयोग की अनुशंसाओं के बावजूद 17 राज्यों ने शिक्षा और अन्य सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में खर्च नहीं बढ़ाया है। आंकड़े और मंत्री प्रकाश जावडेकर का बयाँ बे मेल हैं। फिर भी सरकार का पीठ ठोंकना किसी जादूगरी से कम नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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