
दरअसल, इस तरह की घटना यह भी परिलक्षित करती है कि सामाजिक मूल्य, आदर्श और व्यक्ति को नैतिक और मानसिक तौर पर मजबूत करने वाले प्रेरक तत्व तेजी से गुम होते जा रहे हैं। यह सब कुछ परिवार के स्तर पर ज्यादा इसलिए देखने को मिल रहा है कि हम जितने आधुनिक होते जा रहे हैं। नैतिक मूल्यों में गिरावट भी उतनी ही तेजी से हो रही है।
वर्तमान में स्वकेंद्रित व्यावहारिकता की जो लहर चली है, उसने मानवीय रिश्तों पर बुरा असर डाला है। अब रिश्ते दिलों के नहीं, सिर्फ लाभ-हानि के होते जा रहे हैं। हम कहने को जितने प्रोफेशनल हुए हैं, उतना ही परिवार और रिश्तों में तालमेल बिगड़ा है।
दुनिया में मानवीय मूल्य ही सर्वश्रेष्ठ है, इन्हीं से मानव की पहचान होती है लेकिन आजकल मानवीय मूल्यों का स्थान धन, संपत्ति, नाम, मान, शान और स्वार्थ ने ले लिया है। इसके कारण मनुष्य के मानवीय मूल्यों और चरित्र का पतन होता जा रहा है। खासकर युवा पीढ़ी इसका तेजी से शिकार बनती जा रही है।
दिल्ली की यह घटना हो या नये साल की पूर्व संध्या पर देश के विभिन्न स्थानों पर जश्न मनाने निकली मनचलों की टोली। हर तरफ के घटनाक्रम में मानसिकता पर अराजकता हावी है। कोई इस बात को समझने को राजी नहीं कि सामाजिक मूल्य कितने बेशकीमती होते हैं। दूसरों के प्रति आदर-सम्मान-मर्यादा की अभिव्यक्ति कितना सुकून देती है। पारिवारिक मूल्यों में क्षरण और सामाजिक मूल्यों का पाताल तक चले जाना स्वस्थ माहौल के लिए कतई सही नहीं है।
चूंकि परिवार ही किसी बच्चे की प्राथमिक पाठशाला है, सो जीवन के मूल्य भी सबसे पहले यहीं प्रस्फुटित होते और सुगठित होते हैं। मूल्यों का बिरवा रोपने की उर्वर जमीन-जगह ये ही तो हैं। यह काम अभिभावक या माता-पिता ही कर सकते हैं। इसे समझना जटिल नहीं है। न यह सरकार का काम है। यह परिवार-समाज के स्तर के मसले हैं, जिन्हें बिसराने का अंजाम ही हम दिल्ली-बेंगलुरू जैसी घटना में देखते हैं। हमे ही कुछ सोचना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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