
इसके पक्ष और विपक्ष, दोनों में ही बराबर और मजबूत तर्क दिए जा रहे हैं। इसके विरोधी आम लोगों की तकलीफों का हवाला दे रहे हैं, जो आज भी कम नहीं हुई हैं, लेकिन इसके पैरोकार कह रहे हैं कि इन परेशानियों पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं है। फायदे मिलने लगेंगे तो उसके आगे ये दिक्कतें बहुत मामूली लगेंगी। जनता समझ नहीं पा रही कि आखिर फायदा मिलेगा तो कब, और किस तरह का? शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने बड़ी दिलचस्प बात कही कि इसका उद्देश्य लोगों में व्यवहारगत बदलाव लाना है, ठीक उसी तरह जैसे स्वच्छ भारत अभियान के जरिये लाया गया था। जैसे स्वच्छता अभियान कचरा खुले में फेंकने से पहले सोचने के लिए कहता है, उसी तरह नोटबंदी लोगों को खर्च करने से पहले सोचने को बाध्य करती है।
नायडू के इस बयान से लोग और डर गए, क्योंकि स्वच्छ भारत अभियान का हश्र वे देख ही रहे हैं। बहरहाल, वित्त मंत्री अरुण जेटली के अनुसार नोटबंदी के रिजल्ट सामने आने लगे हैं। रबी की बुवाई में छह प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और बीमा कारोबार में २१३ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। इन दोनों चीजों का नोटबंदी से क्या संबंध है, समझना कठिन है। वैसे जेटली यह भी कह रहे हैं कि नोटबंदी जीडीपी पर लंबी अवधि में सकारात्मक असर डालेगी। यह अवधि कितनी लंबी होगी, यह उन्होंने नहीं बताया। अभी उनसे यही उम्मीद की जा रही है कि बजट में टैक्स से कुछ छूट दे दें। अलग-अलग आकलनों के अनुसार बैंकों में वापस आ चुके पांच सौ और एक हजार के रद्द नोटों का कुल मूल्य 14 लाख से साढ़े 14 लाख हजार करोड़ के बीच हो सकता है।
चलन में रहे ऐसे नोटों का कुल मूल्य 15 लाख 44 हज़ार करोड़ बताया गया है। इस हिसाब से करीब एक-डेढ़ लाख करोड़ रुपये मूल्य के पुराने नोट बैंकों में जमा नहीं हो पाएंगे और सरकार इस धन का इस्तेमाल अपनी मर्जी से कर सकेगी। लेकिन अपने इस मुनाफे को वह जनता में कैसे बांटेगी, यह साफ नहीं है। एक राय यह है कि सरकार यूनिवर्सल बेसिक इन्कम स्कीम के तहत करीब 20 करोड़ जरूरतमंदों को हर महीने 500 रुपये दे सकती है। यह संभव हो सका तो इसका कुछ राजनीतिक फायदा भी उसे जरूर मिलेगा। शायद पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से ही पता चले कि नोटबंदी का असर देश में कितना हुआ है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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