तीन तलाक, आगे आगे देखिये होता है क्या ?

राकेश दुबे@प्रतिदिन। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के संवैधानिक अधिकार और विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ के बारे में जो कुछ कहा, उस पर ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है। इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट भी सुनवाई कर रहा है। इस तथ्य को संज्ञान में लेते हुए हाईकोर्ट ने इस मामले में तलाक और दूसरी शादी की वैधानिकता पर कोई फैसला नहीं दिया, बस पुलिस सुरक्षा संबंधी याचिका खारिज कर दी।

अदालत ने फैसला सुनाने के क्रम में अपनी यह राय जरूर जाहिर की कि एक ही बार में तीन तलाक बोलकर इकतरफा ढंग से शादी तोड़ देने की परिपाटी मुस्लिम महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन है। यह भी कि विभिन्न समुदायों में प्रचलित पर्सनल लॉ का कोई भी प्रावधान भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। साफ है कि हाईकोर्ट ने मसले की संवेदनशीलता और सुप्रीम कोर्ट की गरिमा, दोनों का ख्याल रखते हुए संतुलित और संयमित रुख अपनाया। उसने फैसला याचिका पर दिया है, तीन तलाक की वैधानिकता पर नहीं।

अगर तीन तलाक पर बात होती तो कोर्ट उस फर्क को जरूर रेखांकित करता, जो फटाफट तीन तलाक कह कर या फोन, स्काइप, फेसबुक आदि के जरिए तीन बार तलाक शब्द पहुंचा कर संबंध विच्छेद मान लेने और तय प्रक्रिया के मुताबिक नब्बे दिन के अंतराल में समाज को शामिल करते हुए तलाक देने में है। इस मसले को इस्लाम से जोड़ने पर आमादा पर्सनल लॉ बोर्ड के लोगों और मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी तत्वों को यह जरूर सोचना चाहिए कि वे धर्म के नाम पर कितनी ज्यादतियों की इजाजत दे सकते हैं।

अगर समाज में किसी समय धर्म के नाम पर कोई कुरीति प्रचलित हो गई तो सबका भला जल्द से जल्द उससे पीछा छुड़ाने में होता है, न कि धर्म की आड़ देकर उसे बनाए रखने में। हमें समझना होगा कि ‘फटाफट तीन तलाक’ को मुस्लिम समाज के अंदर से भी तगड़ी चुनौती मिल रही है। आज की पढ़ी-लिखी और जागरूक मुस्लिम महिलाओं का बड़ा हिस्सा इसे बंद कराने की मांग कर रहा है, और वह इस्लाम विरोधी कतई नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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