
अगर उसमें सरकार वृद्धि करे तो नोट वापसी का असर थोड़ा कम हो सकता है। दरअसल, खर्च के आधार पर निर्धारित प्राइवेट फाइनल कंजप्शन एक्सपेंडिचर (पीएफसीई) का वर्तमान मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 60 प्रतिशत और स्थिर मूल्य पर 55 प्रतिशत हिस्सा होता है।
एसोचैम की मानें तो नोटों की वापसी के कारण तीसरी तिमाही में पीएफसीई में कम-से-कम 35 से 40 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है और चौथी तिमाही में भी इसमें गिरावट रहने के आसार हैं। जाहिर है, इसका असर समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। प्रश्न है कि क्या सरकार ऐसा कर सकेगी और इससे नोट वापसी का असर खासा कम हो जाएगा?
सरकार बुनियादी परियोजनाओं पर खर्च कर सकती है और इसका असर होगा लेकिन इतने से गिरते विकास दर को पूरी तरह थामा नहीं जा सकता। इसलिए जरूरी है कि यहां रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक समीक्षा में नीतिगत दरों में कुछ कटौती करे। संभावना व्यक्त की जा रही है कि गवर्नर उर्जित पटेल नीतिगत दरों में शायद 0.25 प्रतिशत की कटौती करें चूंकि नोटों की वापसी के बाद यह पहली मौद्रिक 6 फीसद तक लाने में कोई जोखिम नहीं है। इससे उद्योगों और उपभोक्ताओं दोनों को कम दर पर कर्ज मिल सकेगा जिससे उत्पादन एवं खरीद दोनों को गति मिलेगी। कहने का तात्पर्य यह कि नोट वापसी के कारण बाजार की मंदी को तोड़ने और उसमें गतिशीलता लाने के लिए सरकार एवं रिजर्व बैंक दोनों को कमर कसना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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