राकेश दुबे@प्रतिदिन। आज भले ही हम भारत में मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसे रोगों से परेशान हैं, या बाकी दुनिया में जीका वायरस ने नाक में दम कर रखा है लेकिन एक-डेढ़ सदी पहले प्लेग जैसी महामारी जिस तरह दुनिया को दहशत में डालती थी, हम उससे बहुत दूर निकल आए। इसका श्रेय पूरी तरह इन एंटीबॉयोटिक्स की खोज को ही है। एंटीबॉयोटिक्स की खोज से पहले हमारे पास बैक्टीरिया के संक्रमण से लड़ने का कोई पक्का रामबाण तरीका नहीं था। परंपरागत दवाएं ऐसे रोगों के कारण को पूरी तरह खत्म नहीं कर पाती थीं, अक्सर वे उनके लक्षणों से लड़ती थीं। कुछ ही वर्षों में एंटीबॉयोटिक्स इन रोगों से लड़ने का एक भरोसेमंद हथियार बन गईं। जल्द ही सर्वसुलभ भी हो गईं। लेकिन सदी खत्म होते-होते वे अपना असर खोने लग पड़ीं।
एंटीबॉयोटिक्स की दिक्कत यह है कि ये शुरुआत में बैक्टीरिया को मारती तो हैं, लेकिन जल्द ही बहुत सारे बैक्टीरिया अपने अंदर इनका प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। इसके बाद बैक्टीरिया को मारने के लिए नई एंटीबॉयोटिक्स की खोज शुरू हो जाती है। नई एंटीबॉयोटिक्स ज्यादा प्रभावी होती हैं और बाजार में महंगी होती हैं, दवा कंपनियों के लिए ये ज्यादा मुनाफे का सौदा होती हैं। इसलिए नई एंटीबॉयोटिक्स की खोज और उनके परीक्षण, ट्रायल वगैरह का भी एक बड़ा तंत्र बन गया है। अब कुछ ऐसे बैक्टीरिया विकसित हो गए हैं, जिन पर नई या पुरानी किसी एंटीबॉयोटिक्स का कोई असर नहीं होता। ऐसे बैक्टीरिया को सुपरबग नाम दिया गया है, जो धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैलने लगे हैं। पिछले कुछ समय से यह एक ऐसी समस्या बन गई थी, जिसका चिकित्सा विज्ञान के पास कोई तोड़ नहीं था। अब वैज्ञानिकों ने इसका इलाज ढूंढ़ निकाला है।
वैज्ञानिकों ने एक पेप्टाइड पॉलीमर तैयार किया है, जो किसी भी तरह के बैक्टीरिया को तबाह कर सकता है, यहां तक कि सुपरबग को भी। सितारे के आकार वाला यह पॉलीमर मूल रूप से एक प्रोटीन है, जिसके बारे में दावा किया गया है कि यह बैक्टीरिया को तो मारता है, लेकिन हमारे शरीर को किसी तरह से कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। हालांकि नुकसान वाले मामले को अक्सर अलग तरह से देखा जाता है। किसी दवा का क्या नुकसान है, यह कभी-कभी तो परीक्षण के दौर में साफ हो जाता है, जबकि कई बार यह लगातार इस्तेमाल के काफी समय बाद ही पता लग पाता है।
इस नुकसान को भी दो तरह से देखा जाता है, सीधा नुकसान और साइड इफेक्ट।आमतौर पर सीधे नुकसान से बचने की कोशिश की जाती है और यह देखा जाता है कि साइड इफेक्ट को किस हद तक नजरअंदाज किया जा सकता है। अगर ऐसा नुकसान दवा से मिलने वाले फायदे के मुकाबले मामूली है, तो उसे रहने दिया जाए। एंटीबॉयोटिक्स के नुकसान हमें पता हैं, लेकिन फिर भी हमारे पास उनका कोई विकल्प नहीं है। उम्मीद है कि पेप्टाइड पॉलीमर में उतने ही प्रभावी सिद्ध होंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
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