
हिंसा का खेल अधिकांश तो अवैध हथियारों के हवाले होता है, जिन पर चुनाव आयोग का काई नियंत्रण नहीं होता| अब क्योंकि अवैध धंधे, संगठित अपराध और राजनीति का ‘धंधा’ पारस्परिक तौर पर जुड़े हुए हैं, इसलिए धंधेबाज राजनेता अपने नियंत्रण में ज्यादा से ज्यादा हथियार रखना चाहता है, ताकि इनके बल पर वह अपनेमतदाताओं पर अपना प्रभाव बनाए रख सके और अपने प्रतिद्वंद्वी को डरा-धमका सके|
अब सवाल यह है कि जब चुनावों के साथ हिंसा की परम्परा इतनी मजबूत हो गई हो कि कोई भी चुनाव सुरक्षा बलों के बिना सम्पन्न ही न हो सके और उसे परोक्ष तौर पर सामाजिक स्वीकृति मिली हुई हो| तब क्या केवल चुनाव आयोग इस पर रोक लगा सकता है, चुनाव के पूर्व और बाद के परिदृश्य को पूरी तरह हिंसा मुक्त करा सकता है? सीधा-सा जवाब है कि जिस तरह से कोई भी अमानवीय दुष्प्रवृत्ति बिना सामाजिक उपचार किये केवल कानूनी उपचार से दुरुस्त नहीं होती, उसी तरह से चुनावी हिंसा की दुष्प्रवृित्त से भी केवल प्रशासनिक ताम-झाम के जरिए नहीं निपटा जा सकता. इसके लिए सामाजिक-सांस्कृतिक उपचार बेहद जरूरी है|
हमने पिछले पैंसठ वर्षो में इस हिंसा पर नियंत्रण के लिए ऊपरी यानी प्रशासनिक व्यवस्थाएं तो मजबूत की हैं, लेकिन ऐसी कोई आंतरिक चुनावी संस्कृति विकसित नहीं की, जो हिंसा के विरुद्ध स्वत: प्रतिरोधकारी हो| ऐसा करना असंभव कार्य नहीं था मगर हमारे राजनेताओं और विचारकों ने कभी इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया| उन्होंने कभी इस पर नहीं सोचा कि चुनाव किस तरह के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव पैदा करते हैं, किस तरह चुनावी प्रतिद्वंद्विता को वैयक्तिक प्रतिद्वंद्विता में बदलते हैं, और पारिस्परिक मतभेदों को किस तरह आपसी शत्रुता में परिवर्तित कर हिंसा को बढ़ावा देते हैं| चुनावों के प्रभाव का औपचारिक समापन उनके परिणामों के साथ मान लिया जाता है| चुनाव के दौरान पैदा हुई शत्रुताओं को अनदेखा कर दिया जाता है और उन्हें मिटने या बढ़ने के लिए अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है, जबकि इन शत्रुताओं का उपचार चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए|
चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा होने का तात्पर्य यह नहीं कि यहां भी सरकार या चुनाव आयोग कोई नयी कानूनी व्यवस्था लागू करें, बल्कि यह है चुनावों की एक सामाजिक संस्कृति विकसित की जाए, जो सरकार या चुनाव आयोग पर निर्भर नहीं करे|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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