
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अपनी ओर से संसद की कार्यवाही चलने देने की इच्छा व्यक्त करने के बावजूद संसद में सभी पक्षों के नेता एक-दूसरे पर तीखे प्रहार से बाज नहीं आ रहे। इधर जो व्यक्तिगत आक्षेप और कटु आलोचना देखने में आई है, उसके बाद यह नहीं लगता कि संसद में माहौल सहयोग और मित्रता का हो सकता है। पिछले कुछ संसदीय कार्यकाल में विपक्ष और सरकार के बीच कड़वाहट, अविश्वास और दूरी बढ़ी ही है। सांसदों की वह पीढ़ी धीरे-धीरे राजनीति से विलुप्त हो गई, जिसका आजादी के आंदोलन का अनुभव था और जिसका संसदीय प्रशिक्षण आजादी के बाद के दो-ढाई दशकों में हुआ था, जिसमें कद्दावर नेताओं ने संसदीय परंपराएं बनाने के लिए गंभीरता से मेहनत की थी।
खुद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संसद की बहसों को गंभीरता से सुनते थे और नए से नए सांसद की बात को महत्व देते थे। उस दौर की संसद में जो नेता रहे थे, वे संसदीय परंपराओं और मर्यादाओं का बहुत ध्यान रखते थे। तब नेता राजनीतिक मतभेदों के बावजूद व्यक्तिगत रिश्ते बनाए रखते थे, जिससे वे जरूरी मौकों पर एक-दूसरे से सहयोग भी कर पाते थे। उस पीढ़ी के जाने के बाद संसद में ऐसे नेता कम बचे हैं, जिनकी मित्रता का दायरा व्यापक हो और जो पार्टी की सीमाओं के पार सहयोग कर सकें या मांग करें। जरूरी यह है कि सारी पार्टियों के नेता यह स्वीकार करें कि विरोधी होने का अर्थ दुश्मन होना नहीं होता। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि इस सिलसिले में सिर्फ दूसरों की कमियां न गिनवाई जाएं, बल्कि यह भी स्वीकार किया जाए कि खुद से भी गलतियां हुई हैं।
भारतीय राजनीति ही इस वक्त ज्यादा आक्रामक और उग्र दौर से गुजर रही है, जिसमें कोई पक्ष झुकना नहीं चाहता। ऐसा भी नहीं है कि ये विवाद विचारधारात्मक हैं, ज्यादातर विवाद सत्ता या वर्चस्व के हैं। जो भारती राजनीति की दशा को बंगला देश की राजनीति जैसा बना सकती है | बहुत जरूरी है संयम की | जिसका अभाव पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों में है |
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
- संपर्क 9425022703
- rakeshdubeyrsa@gmail.com