जान की बाजी लगा पत्थरों में जान फूंकते हैं ये कारीगर

जगदीश शुक्ला/मुरैना। वे बखूबी जानते हैं कि उनका पत्थर तरासने का हुनर पल-पल उनके जीवन की डोर को छोटा कर रहा हैं। उन्हें इस बात का भी पूरा अहसास है कि उनके द्वारा किया जा रहा काम उनकी जिंदगी के सफर को महज चालीस और पचास वर्ष की उम्र में सिमटा कर रख देगा, लेकिन अफसोस फिर भी वे रोजगार के किसी अन्य विकल्प के अभाव में अपने पेट भरने के इस इकलौते हुनर को सहेजते हुए जानबुझ कर अपनी कुर्बानी दे रहे हैं। 

इसे चाहे उनकी वेबसी कहा जाये अथवा कुछ और लेकिन जौरा तहसील मुख्यालय से महज कुछ किलोमीटर के फासले पर बसे धमकन गांव की यह हकीकत का सौ टका सच यही है। पत्थरों को तराशते हुए उन्हें छत्री एवं अन्य कलात्मक रूप देने में उन्हें टी.ब्ही.जैसे लक्षणों बाली बीमारी हो जाती है। जो इन गरीब परिवारों के लिये अक्सर लाईलाज एवं जानलेवा साबित होती है। मौत एवं असाध्य बीमारी के खौफ के बावजूद गांव के लगभग एक सैकड़ा लोग अपनी सांसों की कीमत पर अपने हुनर को सहेजने के लिये मजबूर हैं। अंचल मेें यह एक मात्र एसा गांव है जहां पत्थर से छत्रियां गढ़ने का काम होता है। 

महज दौ सैकड़ा परिवारों के धमकन गांव के प्रत्येक परिवार में पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजने के लिये बनाई जाने वाली पत्थर की छत्री गढ़ने का काम मजबूरन करना पड़ रहा है। गांव में एक दो नहीं अपितु समूचे गांव के लोगों को उनके पूर्वजों ने कुछ एसा ही हुनर बख्सा है,जिसमें वे लोगों के पूर्वजों की स्मृतियों को साकार करने में अपनी औसत उम्र से पहले ही परिवारीजन एवं आश्रितों को अपनी यादों के भरोसे छोड़कर इस दुनियां से रूखसत हो जाते हैं। 

अंचल में ही नहीं दूरदराज के गांवों में भी इस गांव के हुनरमंदों द्वारा तरासी गई पत्थर की सैकड़ों नहीं हजारों छत्रियां लोगों के पूर्वजों की यादों को तो साकार कर रहीं हैं, लेकिन इन छत्रियों को तरासने बाले कारीगर अब इस दुनियां में नहीं हैं। उनका यह अनूठा हुनर ही उनके लिये जानलेवा साबित होता है, पत्थर तरासने से निकलने बाली डस्ट के कारण होने बाली घातक बीमारी के कारण ये हुनरमंद असमय इस दुनियां से कूच कर जाते हैं। अपना एवं परिवार का पेट भरने की मजबूरी के चलते ये अपनी सांसों की कीमत पर अपने हुनर को सहेजने की जद्दोजेहद में लगे हैं। हैरानी की बात यह भी है कि आधुनिक युग के चिकित्सा संसाधन एवं कला को सहेजने के लिये सरकार द्वारा किये जा रहे तमाम प्रयास भी पत्थरों को तराश कर उन्हें आकार देने बाले इन हुनरमंदों के किसी काम नहीं आ पा रहे हैं। 

धमकन गांव में पत्थरों के भारी भरकम टुकड़ों को तरास कर नक्काशीदार चार खम्बों सहित आकर्षक झालर एवं बुर्ज सहित पूरी छत्री बनाने के काम में लगे गांव के मुन्नालाल कुषवाह का कहना है कि उन्हें एक छत्री बनाने में परिवारी जनों के सहयोग के बावजूद लगभग एक महीने का समय लगता है। उनके द्वारा बनाई छत्री की आसपास के गांवों सहित राजस्थान एवं अन्य स्थानों पर अच्छी मांग है। एक छत्री को बनाने एवं उसे फिटिंग करने तक का काम उन्हीं का है,इसके लिये उन्हें एक छत्री की एवज में पन्द्रह से बीस हजार तक की मजदूरी मिल जाती है,इसमें पत्थर की कीमत एवं परिवहन के खर्चे भी शामिल हैं। मुन्नालाल के मुताबिक उन्हें एक छत्री पर मजदूरी के रूप में आठ से दस हजार तक की मजदूरी मिल जाती है। 

छत्री गढ़ने के हुनर के संबंध में पूछे जाने पर गांव के ही रायसिंह कुषवाह उम्र 55 बर्ष ने बताया कि गांव में पत्थर को तरासने का हुनर कहां से एवं कैसे आया लेकिन बुजुर्गों से मिली जानकारी के अनुसार गांव में यह काम लगभग सौ बर्ष से अधिक समय से पुराना है। रायसिंह बताता है कि लगभग सौ बर्ष पूर्व गांव में चंदनसिंह बाबा छत्री बनाने के काम को कहीं बहर से सीख कर आये थे। उन्हीं के द्वारा इस काम की शुरूआत गांव में की गई। एक छत्री को आकार देने में दो कारीगरों को औसतन एक पखबारा लगता है। इस हुनर से जुड़े गांव के लोगों के पास एक बीघा,दो बीघा से अधिक जमीन नहीं है। यही वह कड़बी हकीकत है जिसके कारण धमकन के लगभग एक सैकड़ा परिवार मौत के साये में भी मुस्कराते हुए अपने इस हुनर को अपने गुजारे के साधन के रूप में अपनाये हुए हैं।

डेंजर जोन में शुमार है गांव
बहुतायत से पत्थर तरासने का काम होने के कारण गांव में इस काम से जुड़े अधिकांष लोग ट्यूबरकोलेसिस जैसी घातक बीमारी के षिकार हैं। चिकित्सकों का मंहगा एवं दीर्घकालीन उपचार भी इन्हें मौत के भय से मुक्ति नहीं दिला सका है। यही नहीं सरकार द्वारा संचालित डाॅट प्रोग्राम के तहत संधारित रिकार्ड में गांव डेंजर जोन में अंकित है,लेकिन इसके बावजूद उन्हें इस बीमारी से निजात दिलाने के लिये कोई बिषेष एवं अतिरिक्त प्रयास नहीं किये गये हैं।

पत्थर में जान फूंकने जमकर मिली प्रशस्ति 
गांव के ही होनहार नवयुवक पोहपसिंह कुषवाह सहित कई अन्य युवाओं ने पत्थर के कई मनमोहक कलाकृतियां बनाईं हैं। पोहपसिंह का कहना है कि उसे इस काम के लिये प्रदेष के हस्तकला विकास निगम के अधिकारियों का प्रोत्साहन भी मिला। उनके द्वारा बनाई गई पत्थर की कृतियों को दूरदराज तक आयोजित होने बाली नुमाईषों में सराहना एवं प्रषस्ति पत्र तो मिले,लेकिन उनके लिये निगम के अधिकारियों ने इस कला को बचाये रखने के लिये बैकल्पिक संसाधन मुहैया कराने की परवाह नहीं की। 

पानी में तैरती पत्थर की नाव
पोहप सिंह कुषवाह,यादवेन्द्र कुषवाह,मुन्नालाल कुषवाह,भूपेन्द्र कुषवाह एवं उसके साथियों ने एक से बढ़कर एक पत्थर की कृतियां गढ़कर उनमें जान फूंकी। उनके द्वारा एक ही पत्थर से तरासकर बनाई गई पत्थर की छत्री, सहित,षार्दुल,षेर,एस ट्रे एवं पत्थर की पानी में तैरने बाली नाव बनाई है। उनकी इस कृति को प्रदर्षनियों में काफी सराहना भी मिली लेकिन उनके हुनर को बचाने के लिये कोई प्रयास ना तो सरकार ने कोई प्रयास किये और नां ही हस्तकला को बचाने की दुहाई देने बाले हस्त कला विकास निगम के हाकिमों ने ही उनकी कोई परवाह की।

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