पार्टियों के रोग और शैक्षिक परिसर

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राकेश दुबे@प्रतिदिन। एक सवाल कई सालों से अनुत्तरित घूम रहा है पर इस समय सबसे गर्म है। सवाल यह है कि क्या हमारे शैक्षिक संस्थानों के परिसर राजनीति के अखाड़े हैं, और इसकी छूट  शैक्षिक परिसरों में होना चाहिए? इस बारे में हमेशा दो मत रहे हैं। राजनीतिक दल अमूमन पसंद करते हैं कि शैक्षिक परिसरों में राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत हो। इसके पीछे वे लोकतंत्र का तर्क देते हैं। पर लोकतंत्र का तर्क वे तब भूल जाते हैं जब पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की मांग उठती है, तो वे बौने साबित होते हैं। जे एन यु कांड के बाद हो रहे घटनाक्रम इस बहस को वर्तमान का सवाल मानते हैं और सारे दल अपनी तरह से इस और जुट गये है, पर मूल मुद्दा वही का वही है। 

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने वृंदावन में भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जेएनयू प्रकरण को लेकर एक बार फिर राहुल गांधी पर निशाना साधा। उन्होंने सवाल उठाया कि राहुल गांधी जेएनयू क्यों गए थे। यह पहला मौका नहीं है जब इस मामले में शाह ने राहुल की आलोचना की हो। फिर वही क्यों, पूरी भाजपा ने पिछले दिनों राहुल पर निशाना साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह स्वाभाविक भी है। भाजपा और कांग्रेस, दोनों एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी हैं। ऐसे में राहुल को घसीटने का कोई मौका भाजपा क्यों छोड़ना चाहेगी! पर शाह के बयान का संदर्भ शायद राहुल तक सीमित नहीं है। उन्हें लगता होगा कि जेएनयू की चर्चा को गरमाए रखने से भाजपा को राष्ट्रवादी और दूसरों को संदिग्ध पाले में रखने या ऐसा चित्रित करने में आसानी होगी और इसका सियासी लाभ भाजपा को होगा।

दूसरी ओर, कांग्रेस को उम्मीद होगी कि वह विद्यार्थियों के बीच अपनी पैठ बढ़ा पाएगी। शायद राहुल गांधी का युवा होना भी इसमें सहायक साबित हो। वाम दलों को तो जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार के रूप में एक नया नायक ही मिल गया है। यह सूचना तकनीक के युग की खासियत है कि संदेश जल्दी से फैलता है, पर जल्दी से मिटता या धुंधला भी पड़ जाता है। क्या कन्हैया से वाम की आस पूरी होगी, जो छवि निर्मित-प्रसारित हुई है वह टिकाऊ हो पाएगी? 

जमानत पर छूट कर आने के बाद जेएनयू परिसर में दिए कन्हैया के लगभग एक घंटे के भाषण का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक हिस्से ने सीधा प्रसारण कर उन्हें घर-घर पहुंचा दिया। कन्हैया से इंटरव्यू की झड़ी लग गई। उन्होंने बार-बार दोहराया कि उनका आदर्श रोहित वेमुला है। जाहिर है, इस कथन में आंबेडकरवादी धारा को वामपंथ से जोड़ने की रणनीति झलकती है। कुछ ही दिनों में कन्हैया को मिले जबर्दस्त प्रचार का असर यह हुआ कि अब वाममोर्चा आगामी विधानसभा चुनावों में इसका लाभ उठाना चाहता है। पर इतनी जल्दी परिसर से बाहर मुख्यधारा की राजनीति में शिरकत करना क्या कन्हैया जैसे छात्रों  के लिए ठीक होगा? असल में शैक्षिक परिसरों से दलों को आगे के लिए नये लडाके मिलते है, इसलिए वे इन परिसरों का मोह नहीं छोड़ पाते हैं। पार्टियों के रोग इन परिसरों में भी, छात्रसंघ चुनावों में बाहुबल और धनबल के रूप में दिखते हैं। इससे छात्रों का क्या भला होता है? 
  • श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।       
  • संपर्क  9425022703       
  • rakeshdubeyrsa@gmail.com
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